मूल अधिकार

मूल अधिकार

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 विश्लेषणात्मक अवधारणा

 

मौलिक अधिकारों वाला खंड भारतीय संविधान की अंतरात्मा‘ भी कहलाता है। औपनिवेशिक शासन ने राष्ट्रवादियों के दिमाग में राज्य के प्रति संदेह का भाव पैदा कर दिया था। इसीलिए राष्ट्रवादी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में राज्य की सत्ता के दुरुपयोग से बचने के लिए कुछ लिखित अधिकार होने चाहिए। लिहाजा मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को राज्य की सत्ता के मनमाने और निरंकुश इस्तेमाल से बचाते हैं। इस तरह संविधान राज्य और अन्य व्यक्तियों के समक्ष व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है। संविधान के तीसरे भाग में मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। उसमें प्रत्येक मौलिक अधिकार के वियोग की सीमा का भी उल्लेख है। बीते हुए 6 दशकों में मौलिक अधिकारों का स्वरूप भी परिवर्तित हुआ है और कुछ विस्तृत भी।
सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान में मूल अधिकारों को स्थान मिला, जिन्हें प्रथम 10 संविधान संशोधनों के तहत संविधान में सम्मिलित किया गया।  
मूल अधिकारों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
  • रूसी क्रांति ने सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को बढ़ावा दिया।
  • भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान नेहरू रिपोर्ट (वर्ष 1928) में मूल अधिकारों की बात की गई एवं मूल अधिकारों की व्यापक रूपरेखा को कराची अधिवेशन (वर्ष 1931) में प्रस्तुत किया।
  • मूल अधिकारों को भारतीय संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद-12 से 35 तक स्थान दिया गया है।
  • परिभाषाः मौलिक अधिकार वे अधिकार जो व्यक्ति के भौतिक और नैतिक विकास के लिए अनिवार्य है, जिन्हें संविधान एवं न्यायपालिका का विशेष संरक्षण प्राप्त होता है।
 मौलिक अधिकारों की विशेषताएं 
  1. मौलिक अधिकार असीमित या निरपेक्ष नहीं।
  2. मौलिक अधिकार प्रवर्तनीय हैं।
  3. मौलिक अधिकारों का स्वरूप नकारात्मक/निषेधात्मक है (कथनात्मक रूप से नकारात्मक जबकि व्यावहारिक संवैधानिक रूप से सकारात्मक)।
  4. कछ मौलिक अधिकार केवल भारतीय नागरिक को प्राप्त है, उदाहरण- अनुच्छेद-15, 16, 19 जबकि कुछ मौलिक अधिकार भारतीय एवं विदेशी दोनों को प्राप्त है, उदाहरण- अनुच्छेद-21, 25।
  5. कुछ मौलिक अधिकार केवल राज्य के विरुद्ध (जैसे-अनुच्छेद-15 और 16) प्राप्त जबकि कुछ मौलिक अधिकार राज्य और निजी व्यक्ति दोनों के विरुद्ध (जैसे-अनुच्छेद-17) प्राप्त है।
 मौलिक अधिकारों का महत्व : संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का महत्व निम्नलिखित हैः
  1. मौलिक अधिकार व्यक्ति के आत्मविश्वास के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं।
  2. मौलिक अधिकार सरकार की निरंकुशता पर प्रतिबंध लगाते हैं।
  3. मौलिक अधिकार ‘विधि के शासन‘ की स्थापना करते हैं।
  4. मौलिक अधिकार सामाजिक समानता की स्थापना करते हैं।
  5. मौलिक अधिकार पंथ निरपेक्ष राज्य के आधार हैं।
  6. मौलिक अधिकार कमजोर वर्ग को सुरक्षा प्रदान करते हैं।
  7. मौलिक अधिकार अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करते हैं।
  8. मौलिक अधिकार लोकतंत्र की आधारशिला हैं।
 मौलिक अधिकार
  1. समता या समानता का अधिकार (अनुच्छेद-14 से 18)
  2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-19 से 22)
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद-23 से 24)
  4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-25 से 28)
  5. संस्कृति और शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद-29 से 30)
  6. सम्पत्ति का अधिकार (अनुच्छेद-31)
  7. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद-32
    मूल संविधान में मौलिक अधिकारों की संख्या 7 थी, परन्तु सम्पत्ति के अधिकार को 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा मूल अधिकारों की सूची से हटा दिया गया और इसे संविधान के भाग-12 में अनुच्छेद-300 (क) के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया। इस प्रकार वर्तमान में मूल अधिकारों की संख्या 6 है।
अनुच्छेद-12 परिभाषाः मूल अधिकार के अध्याय की शुरुआत राज्य से होती है क्योंकि मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध प्राप्त होने वाले अधिकार है। न्यायालय द्वारा घोषित वादों तथा संविधान के आधार पर राज्य में निम्नलिखित शामिल हैः
  1. कार्यकारी एवं विधायी अंगों को संघीय सरकार में क्रियान्वित करने वाली सरकार और भारत की संसद।
  2. राज्य सरकार के विधायी अंगों को प्रभावी करने वाली सरकार और राज्य विधानमण्डल।
  3. सभी स्थानीय निकाय अर्थात नगर पालिकाएँ, पंचायत, जिला बोर्ड, सुधार न्यास आदि।
  4. अन्य सभी निकाय अर्थात वैधानिक या गैर-संवैधानिक प्राधिकरण, जैसे-एलआईसी. ओएनजीसी, सेल, भेल आदि।
  • उच्चतम न्यायालय के अनुसार किसी भी उस निजी इकाई या एजेंसी को, जो बतौर राज्य की संस्था के रूप में काम कर रही हो। वह अनुच्छेद-12 के तहत राज्य के अर्थ में सम्मिलित है।
  • अनुच्छेद -13: अनुच्छेद-13 घोषित करता है कि मूलअधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ शून्य होगी।
  1.  समानता का अधिकार (अनुच्छेद-14 से 18)
अनुच्छेद 14: विधि के समक्ष समता एवं विधियों का समान संरक्षण भारत में सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समता और कानूनों का समान संरक्षण प्राप्त होगा।
  • कानून के समक्ष समता:
  • यह एक नकारात्मक अवधारणा है।
  • इसका अर्थ है-विशेष अधिकार का न होना।
  • यह परम्परा ब्रिटेन से ली गई है।
  • यह विचारक डायसी की देन है। इसके अनुसार कानून का शासन हो।
  • कानून का समान संरक्षणः
  • यह एक सकारात्मक अवधारणा है।
  • इसका अर्थ है-समान परिस्थिति में समान व्यवहार करना अर्थात् राज्य कानूनों को समान परिस्थिति में रहने वाले व्यक्तियों के ऊपर समान रूप से लागू करेगा।
  • अनुपातिक समानता पर आधारित और यह अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका से ली गई है।
अनुच्छेद 15: धर्म, मूल वंश, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध-राज्य अपने नागरिकों के बीच धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, निवास या जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के बीच सार्वजनिक रूप से भेदभाव नहीं करेगा। परन्तु इसके पाँच अपवाद हैं-महिलाओं, बच्चों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं दुर्बल वर्गों अर्थात पिछड़े वर्गों के पक्ष में भेदभाव किया जा सकता है।
103वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2019: इसके द्वारा संविधान में अनुच्छेद 15 (6) (a), 15 (6) (b) को जोड़ा गया।
  • 15 (6) (a) आर्थिक रुप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान किए जा सकते है।
  • 15 (6) (b) आर्थिक रूप से पिछडे वर्गों के लिए शिक्षा संस्थाओं में राज्य में अधिकतम 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर सकता है। अगर राज्य चाहे तो यह प्रावधान निजी शिक्षा संस्थाओं पर भी लागू हो सकता है। यह अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थाओं पर लागू नहीं होगा।
अनुच्छेद 16: लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता-राज्य के अधीन नियोजन में अवसर की समता होगी और धर्म, मूल वंश, जाति, निवास, जन्म-स्थान, लिंग के आधार पर नागरिकों में कोई भेदभाव नही करेगा।
  • अपवादः मुख्यतः 3-निवास, धार्मिक संस्थाओं से संबंधित पद, पिछड़ा वर्ग। यदि संसद चाहे तो निवास के आधार पर छूट दी जा सकती है।
  • अनुच्छेद 16 (4) के तहत पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान अपेक्षित है।
  1. प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग (कालेलकर आयोग): 1953
  2. द्वितिय पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) अध्यक्षः बिन्देश्वरी प्रसाद (बी.पी.) मंडल
  • सामाजिक पिछड़ेपन पर बल
  • जाति को आधार माना
  • अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) बनाया गया।
  • सरकारी नौकरी मे 27% आरक्षण की सिफारिश।
  • वर्ष 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं।
  • वर्ष 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग के लिए 10 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दी।
इन्द्रा साहनी बनाम भारत सरकार वाद् 1991
  • आरक्षण की व्यवस्था संविधान में वर्णित समानता के सिद्धांत के विरुद्ध नहीं है।
  • जाति को आरक्षण का आधार बनाया जा सकता है, क्योंकि भारत में मुख्य पिछड़ापन सामाजिक पिछड़ापन है न कि आर्थिक पिछड़ापन।
  • पिछड़े वर्गों में साधन संपन्न हिस्से (क्रीमी लेयर) को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। सभी प्रकार के आरक्षणों को मिलाकर आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत होगी।
  • पदोन्नति में आरक्षण लागू नहीं होगा।
  • आरक्षण की व्यवस्था का न्यायिक पुनर्विलोकन किया जा सकता है।
पदोन्नति में आरक्षणः संविधान में 77वां संविधान संशोधन, 1995 के द्वारा 16 (4) (a) जोड़ा गया।
  • अनुच्छेदः 16 (4) (a) सरकारी नौकरी में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों की पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था। इस संशोधन ने उच्चतम न्यायालय द्वारा पदोन्नति के संदर्भ में इन्द्रा साहनी बनाम भारत सरकार वाद में दिए गए निर्णय को समाप्त कर दिया गया।
  • 85वाँ संविधान संशोधन, 2001: 16 (4) (a): जब अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए आरक्षण किया जाएगा तो यह परिणामी ज्येष्ठता के नियम पर आधारित होगा।
  • परिणाम ज्योष्ठता का नियमः इसके अनुसार यदि पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था के कारण अनुसूचित जाति या जनजाति का सदस्य सेवाओं में ज्येष्ठता प्राप्त कर लेता है तो उसकी यह ज्येष्ठता स्थायी हो जाएगी।
  • अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता का अंत और उसका आचरण निषिद्धः अस्पृश्यता विधि के अनुसार एक अपराध होगी, इसमें कोई अपवाद नहीं है।
  • संसद ने अनुच्छेद 17 को आधार बनाकर अस्पृश्यता निवारण अधिनियम, 1995 पारित किया। वर्ष 1976 में इसका नाम बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कर दिया गया।
  • इसी अनुच्छेद के तहत वर्ष 1989 में अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार अधिनियम बनाया गया।
  • अनुच्छेद 18: उपाधियों का निषेधः सेना या विद्या संबंधी सम्मान को छोड़कर सभी उपाधियों पर रोक। भारतीय नागरिक विदेशी राज्य से उपाधि नहीं ले सकता, अगर लेता है तो भारत के राष्ट्रपति की सहमति आवश्यक है। कोई भी उपाधि सैन्य व शिक्षा के क्षेत्र में दी जा सकती है। भारतीय नागरिक किसी भी देश से कोई उपाधियां स्वीकार नहीं करेंगे। कोई व्यक्ति यदि भारत का नागरिक नहीं है तथा व भारत में किसी लाभ के पद पर कार्य कर रहा है तो बिना राष्ट्रपति की अनुमति के कोई उपाधि ग्रहण नहीं कर सकता।
  1. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद-19 से 22 )
  • अनुच्छेद-19 (क) इस अनुच्छेद के अनुसार सभी भारतीय नागरिको को निम्न अधिकार होंगे
  • 19 (क): वाक् व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
  • 19 (ख): बिना युद्ध व हथियारों के सम्मेलन करने के लिए।
  • 19 (ग): संघ, संगठन व सहकारी समिति बनाने के लिए।
  • 19 (घ): पूरे भारत में स्वतंत्र रूप से आवागमन की स्वतंत्रता।
  • 19 (ड): भारत के किसी भी क्षेत्र में निवास करने व बसने की स्वतंत्रता।
  • 19 (च): किसी भी पेशे या व्यवसाय को चलाने तथा व्यापार करने के लिए।
  • अनुच्छेदः 20: अपराधों के लिए दोष सिद्धी के संबंध में संरक्षणः
 
  1. कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक सिद्ध दोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी।
  2. किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दण्डित नहीं किया जाएगा।
  3. किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
  • अनुच्छेदः 21: प्राण व दैहिक स्वतंत्रताः किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधिद्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।
  • अनुच्छेद -21 A: शिक्षा का अधिकारः राज्य 6 से 14 वर्ष तक की उम्र के बच्चों को निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा। यह व्यवस्था 86वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2002 के अंतर्गत की गई है। इस संशोधन से पहले भी संविधान के भाग-4 के अनुच्छेद-45 में बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था थी परन्तु यह नीति-निदेशक सिद्धांत होने के कारण न्यायालय में वाद योग्य नहीं था। इसी अनुच्छेद का अनुसरण करते हुए संसद ने बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (RTI) अधिनियम, 2009 के अंतर्गत यह व्यवस्था की गई। आरटीआई एक्ट अप्रैल 2010 में लागू हुआ।
  • अनुच्छेदः 22: कुछ मामलों में गिरफ्तारी के विरुद्ध से संरक्षणः
  1. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को अपनी गिरफ्तारी का कारण जानने का अधिकार।
  2. अपनी पसंद के वकील से परामर्श का अधिकार होगा।
  3. गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घण्टे के भीतर निकटतम ‘मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुति का अधिकार। इन 24 घण्टों में यात्रा और अवकाश आदि का समय शामिल नहीं है।
  4. यह अधिकार दो प्रकार के व्यक्तियों को प्राप्त नहीं होंगेः
  1. शत्रु अन्यदेशीयः शत्रु अन्यदेशीय से तात्पर्य ऐसे देश के नागरिक से है, जिसके साथ भारत सरकार का युद्ध चल रहा हो।
  2. निवारक नजरबंदी वाले व्यक्ति कोः निवारक नजरबंदी का अर्थ किसी व्यक्ति को अपराध किए बिना संदेह के आधार पर भविष्य में अपराध ‘किए जाने से रोकना/ गिरफ्तार करना। इसका उद्देश्य कानून व्यवस्था को क्षति से बचाना एवं अपराध को रोकना है। टाडा, मिसा, पोटा, मकोका, रासुका आदि कानून निवारक नजरबंदी के अंतर्गत आते है।  
  • निवारक नजरबंदी के तहत अधिकतम 3 माह तक गिरफ्तार रखा जा सकता है, उससे अधिक समय तक गिरफ्तार रखने के लिए एक सलाहकारी बोर्ड (3 सदस्य) की सिफारिश जरुरी हो तथा जिसमें हाईकोर्ट के वर्तमान न्यायाधीश या हाईकोर्ट के अवकाश प्राप्त जज या हाईकोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त होने की योग्यता रखने वाले व्यक्ति।

 

  1. शोषण के विरुद्ध अधिकार ( 23 से 24)
    संविधान में कहा गया है कि, मानव व्यापार एवं बलात् श्रम और 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को मजदुरी करना अपराध की श्रेणी के अंतर्गत रखा गया है।
    इसके अंतर्गत निम्नलिखित अनुच्छेद शामिल हैः
  • अनुच्छेद-23: मानव दुर्व्यापार और बलात् श्रम का प्रतिषेधः मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य बलात् श्रम प्रतिषेध किया जाता है और इस उपबन्ध का कोई उलंघन करता है तो विधि के अनुसार वह दण्डनीय होगा।
  • अनुच्छेद-24: कारखानो आदि में बालकों के नियोजन का निषेधः 14 वर्ष से कम आयु के किसी बालक को किसी कारखाना या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य परिसंकटमय नियोजन में नहीं लगाया जाएगा
    टिप्पणीः इसी अनुच्छेद के तहत वर्ष 1986 में बालश्रम पर प्रतिषेध कानून लाया गया।
 
  1. धार्मिक स्वतत्रंता का अधिकार ( 25 से 28)
  • अनुच्छेद-25: अंतःकरण की और किसी भी धर्म को अबाध रूप से आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता।
  • अनुच्छेद-26: धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता।
  • अनुच्छेद- 27: किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता।
  • अनुच्छेद-28: कुछ धार्मिक शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता।
 
  1. सांस्कृतिक व शैक्षिक स्वतंत्रता (29 से 30)
  • संविधान में कहा गया है कि धार्मिक या भाषायी सभी अल्पसंख्यक समुदाय अपनी संस्कृति की रक्षा और विकास के लिए अपने-अपने शैक्षणिक संस्थान खोल सकते हैं। इस अधिकार के अंतर्गत निम्नलिखित अनुच्छेद शामिल हैं:
  • अनुच्छेद-29: अल्संख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण।
  • अनुच्छेद-30: शिक्षा संस्थाओं की स्थापना व प्रशासन के लिए अल्संख्यकों का अधिकार।
  • अनुच्छेद-32: संवैधानिक उपचारों का अधिकार। डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने संविधान के अनुच्छेद-32 जो संवैधानिक उपचार के अधिकार से सम्बन्धित हैं, को संविधान की आत्मा कहा है। संवैधानिक उपचारों सम्बन्धी मूलाधिकार का प्रावधान अनुच्छेद 32 से 35 में किया गया है। संविधान के भाग 3 में प्रत्याभूत मूल अधिकारों का यदि राज्य द्वारा उल्लंघन किया जाये तो राज्य के विरुद्ध उपचार प्राप्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय में तथा अनुच्छेद 226 के अधीन उच्च न्यायालय में रिट याचिका दाखिल करने के अधिकार नागरिकों को प्रदान किये गये हैं। उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सरकार को आदेश और निर्देश दे सकते हैं। न्यायालय विशेष प्रकार के आदेश जारी करते है, जिन्हें प्रादेश या रिट करते हैं।
  1. बंदी प्रत्यक्षीकरणः बंदी प्रत्यक्षीकरण के द्वारा न्यायालय किसी गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय के सामने प्रस्तुत करने का आदेश देता है। यदि गिरफ्तारी का तरीका या कारण गैर-कानूनी या असंतोषजनक हो, तो न्यायालय गिरफ्तार व्यक्ति को छोड़ने का आदेश दे सकता है।
  2. परमादेशः यह आदेश तब जारी किया जाता है जब न्यायालय को लगता है कि कोई सार्वजनिक पदाधिकारी अपने कानूनी और संवैधानिक दायित्वों का पालन नहीं कर रहा है और इससे किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार  प्रभावित हो रहा है।
  3. निषेध आदेश (प्रतिषेध): जब कोई निचली अदालत अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करके किसी मुकदमे की सुनवाई करती है तो ऊपर की अदालतें (उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय) उसे ऐसा करने से रोकने के लिए ‘निषेध आदेश जारी करती हैं।
  4. अधिकार पृच्छाः जब न्यायालय को लगता है कि कोई व्यक्ति ऐसे पद पर नियुक्त हो गया है जिस पर उसका कोई कानूनी हक नहीं है तब न्यायालय ‘अधिकार पृच्छा आदेश‘ के द्वारा उसे उस पद पर कार्य करने से रोक देता है।
  5. उत्प्रेषण रिटः जब कोई निचली अदालत या सरकारी अधिकारी बिना अधिकार के कोई कार्य करता है, तो न्यायालय उसके समक्ष विचाराधीन मामले को उससे लेकर उत्प्रेप्षण द्वारा उसे ऊपर की अदालत या अधिकारी को हस्तांतरित कर देता है।


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