विश्लेषणात्मक अवधारणा
केंद्रीय और प्रादेशिक स्तर पर निर्वाचित सरकार की मौजूदगी ही किसी लोकतंत्र के लिए काफी नहीं। लोकतंत्र के लिए यह भी जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर स्थानीय मामलों की देखभाल करने वाली एक निश्चित सरकार हो। इस अध्याय में हम अपने देश में मौजूद स्थानीय सरकार की बनावट का अध्ययन करेंगे। हम यह भी पढेगे कि स्थानीय सरकार का क्या महत्त्व है और उसे स्वतंत्र रूप से शक्ति प्रदान करने के क्या रास्ते हैं। यह अध्याय पढ़ने के बाद आप जान सकेंगे किः
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भारत में पंचायती राज व्यवस्था की पृष्ठभूमिः आधुनिक समय में स्थानीय शासन के निर्वाचित में निकाय सन् 1882 के बाद अस्तित्व में आए। उस समय लॉर्ड रिपनं भारत का वायसराय था, जिसने इन निकायों को बनाने की दिशा में पहला कदम उठाया। उस समय इसे मुकामी बोर्ड (लोकल बोर्ड) कहा जाता था। परन्तु इस दिशा में प्रगति बड़ी धीमी गति से हो रही थी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सरकार से मांग की कि सभी स्थानीय बोर्डों को ज्यादा कारागार बनाने के लिए वह जरूरी कदम उठाए। भारत शासन अधिनियम, 1919 के बनने पर अनेक प्रांतों में ग्राम पंचायत बनी। भारत शासन अधिनियम, 1935 के बाद भी यह प्रवृत्ति जारी रही। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में महात्मा गांधी ने जोर देकर कहा था कि आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए। उनका मानना था कि ग्राम पंचायतों को मजबूत बनाना सत्ता के विकेंद्रीकरण का महत्वपूर्ण साधन है। स्वतंत्रता के उपरांत जब संविधान बना तो स्थानीय शासन का विषय प्रदेशों को सौंप दिया गया संविधान के नीति-निदेशक सिद्धांतों में इसकी चर्चा की गई है।
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स्वतंत्र भारत में स्थानीय स्वशासनः संविधान के 73वें और 74वें संविधान संशोधन, 1992 के उपरांत स्थानीय शासन को मजबूत आधार मिला लेकिन इससे पहले भी स्थानीय शासन के निकाय बनाने के लिए कुछ प्रयास किए जा चुके थे। इस सिलसिले में पहला नाम आता है-1952 के सामुदायिक विकास कार्यक्रम का। इस कार्यक्रम के पीछे सोच यह थी कि स्थानीय विकास के विभिन्न गतिविधियों में जनता की भागीदारी हो इसी पृष्ठभूमि में ग्रामीण इलाकों के लिए एक त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की गई।
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भारतं मे पंचायती राज से संबंधित प्रमुख समितियां
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बलवंत राय मेहता समितिः इस समिति का गठन 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में योजना आयोग वर्तमान नीति आयोग के द्वारा सामुदायिक विकास कार्यक्रम 1952 और राष्ट्रीय विस्तार कार्यक्रम 1953 के अध्ययन के लिए किया गया था इस समिति ने नवंबर 1957 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौपी। इस समिति के द्वारा निम्नलिखित सिफारिशें की गई थीं:
(i) जन सहभागिता सुनिश्चित करने का सबसे ठोस तरीका पंचायती राज को माना गया।
(ii) त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को अपनाने की बात कही इसके तहत ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, खंड या ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति एवं जिला स्तर पर जिला परिषद के गठन की बात कही।
(iii) ग्राम पंचायत का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से तथा पंचायत समिति एवं जिला पंचायत चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से हो। जिला कलेक्टर को जिला पंचायत का अध्यक्ष बनाया जाए।
(iv) सरकार का इसमें न्यूनतम हस्तक्षेप हो और वह केवल निरीक्षण मार्गदर्शन एवं उच्च स्तर की योजना बनाने तक स्वयं को सीमित रखें।
(v) उक्त सिफारिशों को स्वीकार करते हुए केंद्र सरकार ने राज्यों को स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं की स्थापना हेतु प्रेरित किया।
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अशोक मेहता समिति 1977: पंचायती राज संस्थाओं के संदर्भ में वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार ने अशोक मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया इस समिति ने अपनी रिपोर्ट वर्ष 1978 में सरकार को सौंपी, जिसमें इस समिति में सरकार को निम्नलिखित सिफारिशें की थीं:
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पंचायतों की संरचना द्विस्तरीय हो, जिसमें प्रथम स्तर पर मंडल पंचायत तथा द्वितीय स्तर पर जिला परिषद हो।
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पंचायतों में दलीय आधार पर चुनाव हों, पंचायतों का कार्यकाल 4 वर्ष का हो।
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अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को उनकी जनसंख्या के आधार पर प्रतिनिधित्व प्राप्त हो।
देश की राजनीतिक अस्थिरता के कारण अशोक मेहता समिति की सिफारिशों को लागू नहीं किया जा सका।
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जी.वी.के.राव समितिः जी.वी.के. राव की अध्यक्षता में वर्ष 1985 में राजीव गांधी की सरकार के समय । योजना आयोग द्वारा इस समिति का गठन किया गया। इसका उद्देश्य ग्रामीण विकास एवं निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम से संबंधित प्रशासनिक ढांचे की समीक्षा करना था। इस समिति द्वारा निम्न सिफारिशें प्रस्तुत की गई थीः
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विकेंद्रीकरण के प्रक्रिया में जिला परिषद के सशक्त भूमिका होनी चाहिए।
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पंचायती राज व्यवस्था के त्रिस्तरीय संरचना के गठन की बात कही।
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जिला विकास आयुक्त के पद का सृजन किया जाए तथा उसे जिले के विकास कार्यों का प्रभारी बनाए जाए।
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लक्ष्मीमल सिंघवी समितिः विकेंद्रीकरण की व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए वर्ष 1986 में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने इस समिति का गठन किया था। इस समिति ने नवंबर 1986 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें निम्न सिफारिशें की गईं:
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पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाए और संविधान में इसके लिए अलग अध्याय जोड़ा जाए तथा नियमित चुनाव के लिए संविधान में प्रावधान किया जाए।
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गांवों के समूह के लिए न्याय पंचायतों की स्थापना तथा राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को पंचायतों के निष्पक्ष निर्वाचन की जिम्मेदारी प्रदान की जाए।
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पंचायती राज के जुड़े मामलों को हल करने के लिए राज्य में न्यायिक अधिकरण की स्थापना की जाए।
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73 वां और 74वां संविधान संशोधनः वर्ष 1989 में केंद्र सरकार ने 2 संविधान संशोधनों की बात आगे बढ़ाई। इन संशोधनों का लक्ष्य था-स्थानीय शासन को मजबूत करना और संपूर्ण देश में उसके कामकाज तथा संरचना में एकरूपता लाना। बाद में वर्ष 1992 में संविधान के 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन विधेयक को संसद ने पारित किया। 73वां संविधान संशोधन गांव के स्थानीय शासन से जुड़ा है। इसका संबंध पंचायती राज व्यवस्था के संस्थाओं से है। संविधान के अनुच्छेद 243 से 243-ण (243-O) तक पंचायती राज से संबंधित विभिन्न उपबन्ध किये गए है। जबकि संविधान का 74 वां संविधान संशोधन शहरी स्थानीय शासन (नगरपालिका) से जुड़ा है। 24 अप्रैल, 1993 को 73वां संविधान संशोधन अधिनियम लागू हुआ। संविधान में स्थानीय शासन को राज्य सूची में रखा गया। प्रतिवर्ष 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायत दिवस के रूप में मनाया जाता है। 73वां संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
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73वें संविधान संशोधन के कारण पंचायती राज व्यवस्था में आए बदलाव निम्नलिखित हैं:
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त्रिस्तरीय संरचनाः यह संविधान संशोधन के पश्चात् सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढांचा त्रिस्तरीय होगा सबसे नीचे यानी पहले पायदान पर ग्राम पंचायत, ग्राम पंचायत के दायरे में एक या एक से अधिक गांव होते हैं। मध्यवर्ती स्तर यानी मध्य का पायदान मंडल का है, जिसे खंड (ब्लॉक) या तालुका भी कहा जाता है। इस पायदान पर कायम स्थानीय शासन के निकाय को मंडल या तालुका पंचायत कहा जाता है। जिन प्रदेशों का क्षेत्रफल कम है, वहां मंडल या तालुका पंचायत के मध्यवर्ती स्तर को बनाने की जरूरत नहीं है। सबसे ऊपर पर जिला पंचायत का स्थान है इसके दायरे में जिले का पूरा ग्रामीण क्षेत्र आता है।
विशेषः 73वें संविधान संशोधन में इस बात का भी प्रावधान है कि ग्रामसभा अनिवार्य रूप से बनाई जानी चाहिए। पंचायत क्षेत्र में मतदाता के रूप में दर्ज हर वयस्क व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होता है। ग्राम सभा की भूमिका और कार्य का फैसला प्रदेश के कानूनों से होता है।
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चनावः पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तरों के चुनाव सीधे जनता करती है। हर पंचायत निकाय की अवधि 5 साल की होती है। यदि प्रदेश की सरकार 5 वर्ष पूरे होने से पहले पंचायत को भंग करती है, तो उसे 6 माह के अंदर नए चुनाव करवाना अनिवार्य है।
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आरक्षणः सभी पंचायती संस्थाओं में एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित है। तीनों स्तरों पर अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों के लिए सीटों में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था अनुसूचित जाति एवं जनजाति की जनसंख्या के अनुपात में की गई है। यदि प्रदेश के सरकार जरूरी समझे, तो वे अन्य पिछड़ा वर्ग को भी सीटों में आरक्षण दे सकती है।
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विषयों का हस्तांतरणः ऐसे 29 विषय जो पहले राज्य-सूची में थे, अब पहचान कर संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज कर दिए गए। इन विषयों को पंचायती राज संस्थाओं को हस्तांतरित किया जाना है। अधिकांश मामलों में इन विषयों का संबंध स्थानीय स्तर पर होने वाले विकास और कल्याण के कामकाज से है। इन कार्यों का वास्तविक हस्तांतरण प्रदेश के कानून पर निर्भर है। हर प्रदेश यह फैसला करेगा कि इन 29 विषयों में से कितने विषय को स्थानीय निकायों को प्रदान करना है।
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राज्य चुनाव आयुक्तः संविधान के अनुच्छेद 243-ट, के तहत राज्य निर्वाचन आयोग का प्रावधान किया गया है और प्रत्येक प्रदेश के लिए यह उपबन्ध जरूरी किया गया है कि वे एक राज्य चुनाव आयोग नियुक्त करें। इस आयुक्त की ’जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होगी। पहले यह काम प्रदेश का प्रशासन करता था, जो प्रदेश की सरकार के अधीन होता है। अब भारत के चुनाव आयुक्त के समान प्रदेश का चुनाव आयुक्त भी स्वायत्त है।
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राज्य वित्त आयोगः संविधान के अनुच्छेद 243-झ (243-i) में यह उपबन्ध किया गया कि प्रत्येक प्रदेश की सरकार के लिए हर 5 वर्ष पर एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना जरूरी है यह आयोग प्रदेश में मौजूद स्थानीय शासन की संस्थाओं के आर्थिक स्थिति का अवलोकन करेगा स्थानीय शासन से संबंधित संस्थाओं को धन आवंटन से संबंधित राज्य सरकार को सिफारिश राज्य वित्त आयोग करता है।
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पंचायतों का लेखा परीक्षणः संविधान के अनुच्छेद 243-ञ(243-j) में पंचायतों के लेखाओं से संबंधित प्रावधान किये गये है। इस अनुच्छेद के अनुसार, प्रत्येक राज्य विधानमण्डल विधि द्वारा पंचायतों के खातों की देख-रेख व लेखाओं की संपरीक्षा के बारे में उपबन्ध कर सकेगा।
ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज कुछ विषय
क्र.सं.
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विषय
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1.
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कृषि (कृषि विस्तार शामिल)
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2.
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भूमि विकास, भूमि सुधार कार्यान्वयन, चकबंदी और भूमि संरक्षण
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3.
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लघु सिंचाई, लघु सिंचाई, जल प्रबंधन, जल-विभाजक का विकास।
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4.
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पशुपालन, डेयरी उद्योग और कुक्कुट पालन
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5.
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मत्स्य उद्योग।
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6.
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सामाजिक वानिकी और फार्म वानिकी।
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7.
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लघु वन उपजा
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8.
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लघु उद्योग, जिसके अन्तर्गत खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी शामिल है।
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9.
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खादी, ग्राम, उद्योग एवं कुटीर उद्योग।
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10.
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ग्रामीण आवासन।
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11.
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पेयजला
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12.
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ईंधन और चारा।
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13.
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सड़कें, पुलिया, पुल, फेरी, जलमार्ग और अन्य संचार साधन।
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14.
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ग्रामीण विद्युतीकरण, जिसके अन्तर्गत विद्युत का वितरण शामिल हैं
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15.
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गैर-अपारंपरिक ऊर्जा स्रोत।
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16.
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गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम।
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17.
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शिक्षा, जिसके अन्तर्गत प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय भी है।
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18.
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तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा।
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19.
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प्रौढ़ और अनौपचारिक शिक्षा।
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20.
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पुस्तकालय।
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21.
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सांस्कृतिक क्रियाकलाप।
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22.
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बाजार और मेले।
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23.
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स्वास्थ्य और स्वच्छता (अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और औषधालय)
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24.
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परिवार कल्याण।
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25.
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महिला और बाल विकास।
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26.
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समाज कल्याण (दिव्यांग और मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों का कल्याण)
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27.
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दुर्बल वर्गों का और विशिष्टतया अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का कल्याण।
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28.
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सार्वजनिक वितरण प्रणाली।
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29.
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सामुदायिक आस्तियों का अनुरक्ष।
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· अनुच्छेद 243(G): पंचायतों की शक्ति, प्राधिकार और उत्तरदायित्व के सम्बन्ध में प्रदेश की विधायिका कानून बनाकर 11वीं अनुसूची में दर्ज मामलों में पंचायतों को ऐसी शक्ति और प्राधिकार प्रदान कर सकती है।
· 1996 का पेसा अधिनियम (PESAACT): संविधान का अनुच्छेद 243-ड (243-M), संविधान के भाग-IX से पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों को छूट देते हुए, यह प्रदान करता है कि संसद कानून द्वारा अपने प्रावधानों को अनुसूचित और जनजाति क्षेत्रों के लिए ऐसे अपवादों और संशोधनों के अधीन कर सकती है, जो इस तरह के कानून में निर्दिष्ट किए जा सकते हैं और ऐसा कोई नहीं कानून को संविधान में संशोधन माना जाएगा। 1995 में प्रस्तुत भूरिया समिति की रिपोर्ट के आधार पर, संसद ने अनुसूचित क्षेत्रों के कुछ संशोधनों और अपवादों के साथ संविधान के भाग IX का विस्तार करने के लिए पंचायतों (अनुसूचित क्षेत्रों के लिए विस्तार) अधिनियम, 1996 (पैसा) को अधिनियमित किया। वर्तमान में अनुसूचित क्षेत्रों में 10 राज्यों में मौजूद हैं। आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तेलंगाना। पंचायती राज मंत्रालय राज्यों में पेसा के प्रावधानों के कार्यान्वयन के लिए नोडल मंत्रालय है।
· 74वां संविधान संशोधन अधिनियमः संविधान के 74वें संविधान संशोधन, 1992 का संबंध शहरी स्थानीय शासन के निकाय अर्थात नगरपालिका से है। 74वां संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा नगर पालिकाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया तथा इस संशोधन के माध्यम से संविधान में भाग-प्ग्-क जोड़ा गया। 74वां संविधान संशोधन अधिनियम 1 जून, 1993 से लागू हुआ। संविधान के अनुच्छेद 243-त (243-P) से 243-य छ (243-ZG) तक नगर पालिकाओं से संबंधित उपबंध किये गये है।
· शहरी क्षेत्र किसे कहते हैं? मुंबई अथवा कोलकाता जैसे बड़े महानगरों को पहचान पाना बहुत आसान है। लेकिन जो शहरी इलाके गांव और नगर के बीच स्थित होते हैं, उन्हें पहचान पाना इतना आसान नहीं। भारत की जनगणना में शहरी क्षेत्र को परिभाषित करते हुए जरूरी माना गया है कि ऐसे क्षेत्र को निम्नलिखित आधार पर शहरी क्षेत्र माना जाएगा, जैसेः
· कम से कम 5000 की जनसंख्या हो।
· इस क्षेत्र के कामकाजी पुरुषों में कम-से-कम 75% खेती-बाड़ी के काम से अलग माने जाने वाले पैसे से संबंधित हो, और;
· जनसंख्या घनत्व कम-से-कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो।
· अनेक रूपों में 74वें संविधान संशोधन में 73वें संविधान संशोधन का दौरा है लेकिन यह संशोधन शहरी इलाकों से संबंधित है। 73वें संविधान संशोधन के सभी प्रावधान अर्थात् प्रत्यक्ष चुनाव, आरक्षण, विषय का हस्तांतरण, प्रादेशिक चुनाव, आयुक्त, राज्य वित्त आयोग 74 वें संविधान संशोधन में शामिल है तथा नगरपालिका पर भी लागू होते हैं। शहरी स्थानीय निकाय से संबंधित 18 विषय संविधान की 12वीं अनुसूची में शामिल किए गए हैं।
· 12वीं अनुसूची के 18 विषय
क्रमांक
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विषय
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1.
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नगरीय योजना जिसके अन्तर्गत नगर योजना भी है।
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2.
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भूमि उपयोग का विनियमन और भवनों का निर्णाण।
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3.
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आर्थिक व सामाजिक विकास योजना।
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4.
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सड़कें और पुल।
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5.
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घरेलू, वाणिज्यिक और औद्योगिक प्रयोजनों के लिये जल आपूर्ति।
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6.
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लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई और कूड़ा-करकट प्रबंध।
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7.
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अग्निशमन सेवाएँ।
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8.
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नगरीय वानिकी, पर्यावरण का संरक्षण और पारिस्थितिकी आयामों की अभिवृद्धि।
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9.
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समाज के दुर्बल वर्गों, जिनके अंतर्गत दिव्यांग और मानसिक रूप से मंद व्यक्ति भी हैं, के हितों की रक्षा।
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10.
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झुग्गी-बस्ती सुधार और प्रोन्नयन।
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11.
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नगरीय निर्धनता उन्मूलन।
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12.
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नगरीय सुख-सुविधाओं और अन्य सुविधाओं, जैसे- पार्क, उद्यान, खेल के मैदान आदि की व्यवस्था।
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13.
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सांस्कृतिक, शैक्षणिक और सौंदर्यपरक आयामों की अभिवृद्धि।
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14.
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शव गाड़ना और कब्रिस्तान, शवदाह और शमशान तथा विद्युत शवदाह गृह।
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15.
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कांजी हाऊस, पशुओं के प्रति क्रूरता का विवरण।
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16.
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जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण।
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17.
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सार्वजनिक मुख सविधाएं, जिनके अंतर्गत सड़कों पर प्रकार पार्किंग स्थल, बस स्टॉप और जन-सुविधाएँ भी हैं।
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18.
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वध शालाओं (Slaughter Houses) और चर्मशोधन शालाओं का विनियमन
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