विश्लेषणात्मक अवधारणा
मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही भारतीय इतिहास की राजनैतिक एकता कुछ समय के लिए विखंडित हो गई। अब ऐसा कोई राजवंश नहीं था जो हिंदुकुश से लेकर कर्नाटक एवं बंगाल तक आधिपत्य स्थापित कर सके। दक्षिण में स्थानीय शासक स्वतंत्र हो उठे। मौर्य साम्राज्य की लड़खड़ाती हुई दीवार 185 ई. पू. में ढह गई और मौर्य साम्राज्य के अंत के साथ ही भारतीय इतिहास की राजनैतिक एकता कुछ समय के लिए खंडित हो गई। अब हिन्दुकुश से लेकर कर्नाटक एवं बंगाल तक एक ही राजवंश का आधिपत्य नहीं रहा। देश के उत्तर पश्चिमी मार्गों से कई विदेशी आक्रांताओं ने आकर अनेक भागों में अपने अपने राज्य स्थापित कर लिए। दक्षिण में स्थानीय शासक वंश स्वतंत्र हो उठे। कुछ समय के लिए मध्य प्रदेश का सिंधु घाटी एवं गोदावरी क्षेत्र से सम्बन्ध टूट गया और मगध का स्थान साकल, प्रतिष्ठान, विदिशा आदि कई नगरों ने ले लिया।
मौर्योत्तर काल
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देशी उत्तराधिकारी
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विदेशी उत्तराधिकारी
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· शुंग वंश
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· हिंद यवन
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· कण्व वंश
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· शक
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· आंध्र-सातवाहन वंश
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· पार्थियन
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· वाकाटक वंश
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· कुषाण
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शुंग वंश
- इस वंष के कुल 10 शासक हुए, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-
पुष्यमित्र शुंग
अग्निमित्र
सुजेष्ठ
वसुमित्र
धनभूति
काशीपुत्र
भागभद्र
देवभूमि (अंतिम)
पुष्यमित्र शुंग (185 ई. पू.)
- पुष्यमित्र शुंग - अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई. पू. के करीब सेना का निरीक्षण करते वक्त कर दी और एक नए राजवंश शुंग वंश की स्थापना की।
- यह पुष्यधर्म का पुत्र था। यह कट्टर ब्राह्मणवादी था। इसने कई बौद्ध विहारों को नष्ट किया, भिक्षुओं की हत्या की लेकिन भरहुत स्तूप बनवाया।
- इसने अपने शासनकाल में दो अश्वमेध यज्ञ कराये जिन यज्ञों के पुरोहित पतंजलि थे। जिन्होंने महाभाष्य की रचना की।
- कालिदास के मालविकाग्निमित्रम में पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र और यज्ञसेन की चचेरी बहन मालविका की प्रेमकथा का वर्णन किया गया है।
पुष्यमित्र शुंग कलिंग नरेश खारवेल से पराजित हुआ जिसकी जानकारी खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख से प्राप्त होती है।
भागभद्र अथवा भागवत
- भागभद्र के शासनकाल के 14 वें वर्ष हेलियोडोरस ने विदिशा में वासुदेव के सम्मान में गरुण स्तम्भ स्थापित किया।
- हेलियोडोरस तक्षशिला के यवन शासक एण्टियोकस का राजदूत था।
- मनुस्मृति के वर्तमान स्वरूप की रचना इसी युग में हुयी और संस्कृत भाषा का भी पुनरुत्थान हुआ।
देवभूति
- शुंग वंश के अंतिम शासक देवभूति की हत्या उसके सचिव वासुदेव ने 75 ई. पू. कर दी और कण्व वंश की स्थापना की। इसकी जानकारी महाकवि बाण के हर्षचरित्र से प्राप्त होती है।
कण्व वंश
इस वंश में चार शासक हुए -
वासुदेव
भूमिमित्र
नारायण
सुशर्मा
अंतिम कण्व शासक सुशर्मा की हत्या 30 ई.. पू. सिमुक ने कर दी और एक नए राजवंश आंध्र सातवाहन वंश की नींव रखी।
आंध्र - सातवाहन वंश
- इस वंश का मूल निवास स्थान प्रतिष्ठान था और इसके शासक दक्षिणाधिपति व इनके द्वारा शासित प्रदेश दक्षिणापथ कहलाया। इन राजाओं की जानकारी मत्स्य पुराण में मिलती है।
- इनकी प्रारंभिक राजधानी धान्यकटक (अमरावती) थी।
- सातवाहन समाज मातृसत्तामक था।
शातकर्णी प्रथम
- पुराणों में इसे कृष्ण का पुत्र कहा गया है।
- इसने दो अश्वमेध यज्ञ और एक राजसूय यज्ञ कराया।
- इसके समय के साहित्यकार हॉल ने गाथासप्तशती नामक मुक्तकाव्य की रचना की।
गौतमीपुत्र शातकर्णी
- गौतमीपुत्र शातकर्णी वर्णव्यवस्था का रक्षक और अद्वितीय ब्राह्मण कहा जाता है।
- गौतमीपुत्र शातकर्णी ने वेणकटक की उपाधि धारण की थी। इसके घोड़े तीन समुद्र का पानी पीते थे।
- गौतमीपुत्र शातकर्णी की विजयों की जानकारी गौतमी बालश्री के नासिक अभिलेख से प्राप्त होती है। इसने शक शासक नहपान को हराया।
वशिष्ठीपुत्र पुलवामी
- इसे प्रथम आंध्र सम्राट भी कहा जाता है।
- शक शासक रुद्रदामन ने वशिष्ठीपुत्र पुलवामी को दो बार हराया।
यज्ञश्री शातकर्णि -
- इसके सिक्कों पर जहाज या नाव के चित्र मिलते हैं।
पुलमावी चतुर्थ
इसके समय सातवाहन राज्य छिन्न भिन्न हो के 5 गौड़ शाखाओं में विभक्त हो गया।
- वाकाटक
- चतु वंश
- पल्लव
- इक्ष्वाकु
- आभीर
वाकाटक वंश
- विंध्यशक्ति - इस वंश का संस्थापक विंध्यशक्ति था
- प्रवरसेन प्रथम - इसने चार अश्वमेध यज्ञ और एक वाजपेय यज्ञ किया। यही एक वाकाटक शासक था। जिसने सम्राट की उपाधि धारण की।
- रुद्रसेन द्वितीय - चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह रुद्रसेन द्वितीय से किया इसी से इसका पुत्र प्रवरसेन द्वितीय उत्पन्न हुआ।
- प्रवरसेन द्वितीय - चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने इसके दरबार में कालिदास को भेजा।
- चेदिवंश (कलिंग) - कलिंग के चेदि वंश का संस्थापक महामेघवाहन था और इस वंश का सबसे महान शासक उसका पौत्र खारवेल था।
कुषाण वंश
- भारत में कुषाण वंश का संस्थापक ‘‘कुलुज कडफिसेस’’ को माना जाता है। यह यूची कबीले का शक्तिशाली सरदार था। इसके नेतृत्व में यूची कबीला उत्तर के पर्वतों को पार करता हुआ भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश किया।
- यहां इसने यूनानी राजा हरमोयम नामक व्यक्ति को हराकर काबुल तथा कश्मीर पर अधिकार कर लिया।
विम कडफिसेस
- कुलुज कडफिसेस की मृत्यु के बाद विम कडफिसेस गद्दी पर बैठा। चीनी ग्रन्थ हाऊ-हान-शू से पता चलता है कि इसने तक्षशिला और पंजाब क्षेत्र को विजित किया था।
- इसे भारत में कुषाण शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने सोने और तांबे के सिक्के चलवाये। भारतीय प्रभाव से प्रभावित इन सिक्कों में एक ओर यूनानी लिपि तथा दूसरी ओर खरोष्ठी लिपि खुदी हुई है।
- इसके कुछ सिक्कों पर शिव, नन्दी एवं त्रिशूल की आकृति बनी हुई है, जिससे अनुमान लगाया जाता है कि विम कडफिसेस शैव धर्म का उपासक था। इसने महाराजाधिराज, महेश्वर, सर्वलोकेश्वर आदि की उपाधि धारण की थी।
कनिष्क
- विम कडफिसेस के बाद कुषाण वंश की बागडोर कनिष्क के हाथों में आ गयी।
- कुषाण शासकों में कनिष्क सबसे महान एवं योग्य शासक था। इसके काल में कुषाण शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर थी।
- कनिष्क के राज्याभिषेक की तिथि 78 ई. मानी जाती है। इसी वर्ष से शक सम्वत का प्रारम्भ माना जाता है।
- कनिष्क ने पुरूषपुर (पेशावर) को अपने राज्य की राजधानी बनाया।
- इसके राज्य की दूसरी राजधानी मथुरा थी। कनिष्क की विजयों में सबसे महत्वपूर्ण विजय चीन पर थी। कनिष्क ने चीन के हन राजवंश के शासक पान चाओ को हराया था।
- कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का अनुयायी था। कनिष्क के समय में कश्मीर के कुण्डलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ।
- इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र तथा उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। यहीं पर बौद्ध धर्म हीनयान तथा महायान सम्प्रदायों में विभाजित हो गया।
- इसी संगीति में महाविभाषा नामक पुस्तक का संकलन किया गया। इस पुस्तक को बौद्ध धर्म का विश्वकोष भी कहा जाता है।
- इस पुस्तक में तीनों पिटकों पर लिखी गयीं टीकाएं संकलित है। कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णु था।
गन्धार कला शैली (मूर्तिकला)
- गन्धार कला शैली का विकास कनिष्क के काल में गन्धार में हुआ। इसे इंडो-ग्रीक शैली या ग्रीक-बुद्धिष्ट शैली भी कहा जाता है। इस कला में बुद्ध एवं बोधिसत्वों की मूर्तियां काले स्लेटी पाषाण से बनाई गई हैं।
मथुरा कला शैली (मूर्तिकला)
- इस कला शैली का जन्म कनिष्क के समय में मथुरा में हुआ। इस शैली में लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग हुआ है। इस शैली में बौद्ध, हिन्दू एवं जैन धर्म से सबंधित मूर्तियों का निर्माण हुआ है। बुद्ध की प्रथम प्रतिमा के निर्माण का श्रेय भी इसी शैली को जाता है।
कषाण वंश के सिक्के
- सर्वप्रथम सर्वाधिक मात्रा में कुषाणों ने सोने और तांबे के सिक्के जारी किए। कनिष्क के तांबे के सिक्कों पर उसे बलिवेदी पर बलि देते हुए दर्शाया गया है। कनिष्क के अब तक प्राप्त सिक्के यूनानी और ईरानी भाषा में मिले हैं। कुषाणों ने चांदी के सिक्के नहीं चलाये।
कुषाण वंश का पतन
- कनिष्क की मृत्यु के बाद कुषाण वंश का पतन प्रारम्भ हो गया। कनिष्क के बाद उसका उत्तराधिकारी वासिष्क गद्दी पर बैठा। यह मथुरा और समीपवर्ती क्षेत्रों में शासन करता था। इसके बाद क्रमशः हुविष्क, वासुदेव शासक हुए।
- योग्य उत्तराधिकारियों के अभाव में यमुना के तराई वाले भाग पर नाग लोगों ने अधिकार कर लिया। साकेत, प्रयाग एवं मगध को गुप्त राजाओं ने अपने अधिकार में कर लिया। नवीन राजवंशों के उदय ने भी कुषाणों के विनाश में सहयोग दिया।