मुग़ल प्रशासन

मुग़ल प्रशासन

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मुग़ल प्रशासन

 

विश्लेषणात्मक अवधारणा

मुगल प्रशासन भारतीय तथा विदेशी प्रणालियों के मिश्रण से बना था। यह भारतीय वातावरण में अरबी-फारसी प्रणाली थी। बादशाह शासन प्रशासन का सर्वेसर्वा होता था। वह प्रधान सेनापति, न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी, इस्लाम का संरक्षक तथा जनता का आध्यात्मिक नेता होता था। सिद्धांत रूप में बादशाह की शक्ति असीमित होती थी, परंतु वह अपनी प्रजा की इच्छा का ध्यान रखते हुए स्वयं के द्वारा नियुक्त सलाहकारों की सम्मति से शासन करता था। मुगल प्रशासनिक संरचना सल्तनत कालीन प्रशासनिक व्यवस्था और शेरशाह की प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित थी। मुगल प्रशासन में भारतीय प्रणाली के साथ-साथ फारसी-अरबी प्रणाली का भी सामंजस्य था। मुगल काल में सम्राट के पास सर्वोच्च शक्ति थी, जो शरीयत (इस्लामी कानून) पर आधारित कानून बनाता था एवं प्रशासनिक अध्यादेश जारी करता था।

 

 

मुगलों का राजत्व सिद्धान्त

  • मुगलों के राजत्व सिद्धान्त का मूलाधार ‘शरीयत’ (कुरान एवं हदीस का सम्मिलित नाम) था।
  • बाबर ने राजत्व संबंधी विचार प्रकट करते हुए कहा है कि ‘‘बादशाही से बढ़कर कोई बंधन नहीं है। बादशाह के लिए एकान्तवास या आलसी जीवन उचित नहीं है।’’
  • बाबर ने ‘बादशाह’ की उपाधि धारण करके मुगल बादशाहों को खलीफा के नाममात्र के आधिपत्य से भी मुक्त कर दिया। अब वे किसी विदेशी सत्ता अथवा व्यक्ति के अधीन नहीं रह गये।
  • हुमायूं बादशाह को “पृथ्वी पर खुदा का प्रतिनिधि’’ मानता था।
  • अकबर राजतन्त्र को धर्म एवं सम्प्रदाय से ऊपर मानता था और उसने रूढ़िवादी इस्लामी सिद्धान्त के स्थान पर ‘सुलह कुल’ की नीति अपनायी। जबकि औरंगजेब ने राजतन्त्र को इस्लाम का अनुचर बना दिया।
  • औरंगजेब यद्यपि भारत में परम्परागत रूप से चल रहे मुस्लिम कानून की ‘हनफी’ विचारधारा का परिपोषक था।
  • मुगल बादशाहों ने निःसन्देह बादशाह के दो कर्त्तव्य माने थे- ‘जहांबानी’ (राज्य की रक्षा) और ‘जहांगीरी’ (अन्य राज्यों पर अधिकार)।

 

केन्द्रीय शासन

  • मुगल प्रशासन सैन्य शक्ति पर आधारित एक केन्द्रीकृत व्यवस्था थी, जो ‘‘नियंत्रण एवं सन्तुलन’. पर आधारित थी।
  • मुगल प्रशासन ‘भारतीय तथा गैर-भारतीय’ (विदेशी) तत्वों का सम्मिश्रण था। दूसरे शब्दों में कहें तो यह ‘भारतीय पृष्ठभूमि में अरबी-फारसी’ पद्धति थी।
  • मुगल कालीन प्रशासन में अधिकार का बंटवारा-सूबेदार और दीवान के बीच-मिस्र के शासकों द्वारा अपनाई गयी प्रणाली पर आधारित थी, राजस्व प्रणाली की दो पद्धतियां- अति प्राचीन हिन्दू तथा अरबी सिद्धान्तों का परिणाम थीं। जबकि मनसबदारी व्यवस्था मध्य एशिया से ग्रहण की गयी थी।
  • मुगल साम्राज्य चूंकि पूर्णतः केन्द्रीकृत था, इसलिए बादशाह की शक्ति असीम होती थी फिर भी प्रशासन की गतिविधियों को चलाने के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी।
  • मंत्रिपरिषद के लिए ‘विजारत’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

 

वजीर (वकील) 

  • बाबर और हुमायु के समय में ‘वजीर’ का पद बहुत अधिक महत्वपूर्ण था। यह साम्राज्य का प्रधानमंत्री होता था। इसे सैनिक तथा असैनिक दोनों मामलों में असीमित अधिकार प्राप्त थे।
  • अकबर के काल में मुगल प्रधानमंत्री को “वकील’, कहा जाने लगा। अकबर के शासन काल के आरंभिक वर्षों में बैरम खां ने वकील के रूप में अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया था।
  • इसलिए अकबर ने बैरम खां के पतन के बाद अपने शासनकाल में 8वें वर्ष एक नया पद “दीवान-ए-वजरात-ए-कुल’ की स्थापना की। जिसे राजस्व एवं वित्तीय मामलों के प्रबन्ध का अधिकार प्रदान किया गया।
  • धीरे-धीरे अकबर ने ‘वकील’ के एकाधिकार को समाप्त कर उसके अधिकारों को दीवान, मीरबख्शी तथा मीर-सांमा और सद्र-उस-सुदूर में बांट दिया। उसके बाद से यह पद केवल सम्मान का पद रह गया जो शाहजहां के समय तक चलता रहा।
  • अकबर के काल में केवल चार ही मंत्री पद थे- वकील, दीवान (अथवा वजीर) मीर बख्शी एवं सद्र।

 

दीवान

  • ‘दीवान’ शब्द फारसी मूल का शब्द है। इस पद की स्थापना अकबर ने अपने शासन काल के 8वें वर्ष वकील के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए किया था। इसे ‘वजीर’ भी कहा जाता था। यह वित्त एवं राजस्व का सर्वोच्च अधिकारी होता था।
  • वित्त एवं राजस्व के अतिरिक्त अन्य सभी विभागों पर भी उसका प्रभाव होता था।
  • दीवान भी वकील की तरह शक्तिशाली न हो जाय इसलिए अकबर उसे स्थानान्तरित करता रहा।
  • मुगल बादशाह इन अधिकारियों की नियुक्ति उसकी वित्तीय योग्यता पर करते थे, न कि सैनिक योग्यता पर।
  • मुगल बादशाहों के काल में- मुजफ्फर खां तुरबती, राजा टोडरमल, एवाजशाह मंसूर (सभी अकबर कालीन) ऐतमादुद्दौला (जहांगीर) सादुल्ला खां (शाहजहां कालीन) और असद खां (औरंगजेब कालीन) आदि योग्यतम् दीवान थे।
  • मुगलकाल में ‘असद खां’ ने सर्वाधिक 31 वर्षों तक दीवान पद पर कार्य किया था।
  • दीवान वित्तमंत्री होने के बावजूद अपनी इच्छा से धन व जागीर नहीं दे सकता था। किन्तु वह खालिसा, जागीर और इनाम आदि जमीनों का केन्द्रीय अधिकारी होता था।
  • दीवान की सहायता के लिए अनेक अन्य अधिकारी भी होते थे। दीवाने खालिसा (शाही भूमि की देखभाल करने वाला अधिकारी) दीवान-ए-तन (वेतन तथा जागीरों की देखभाल करने वाला) मुस्तौफी (आय-व्यय का निरीक्षक) तथा मुशरिफ।
  • मीर बख्शी खमीर बख्शी सैन्य विभाग का सर्वोच्च अधिकारी होता था। इस पद का विकास अकबर के काल में शुरू हुआ था। मीर बख्शी का प्रमुख कार्य सैनिकों की भर्ती, उसका हुलिया रखना, रसद प्रबन्ध, सेना में अनुशासन रखना तथा सैनिकों के लिए हथियारों तथा हाथी घोड़ों का प्रबंध करना था।

 

मुगल काल के प्रमुख अधिकारी और कार्य

पद

कार्य

सूबेदार

प्रांतों में शांति स्थापित करना

दीवान

प्रांतीय राजस्व का प्रधान

बख्शी

प्रांतीय सैन्य प्रधान

फौजदार

जिले का प्रधान फौजी अधिकारी

अमलगुजार

जिले का प्रमुख राजस्व अधिकारी

कोतवाल

नगर प्रधान 

शिकदार

परगने का प्रमुख अधिकारी

आमिल

ग्राम के कृषकों से प्रत्यक्ष संबंध बनाने वाला और लगान का निर्धारण करने वाला

 

भूमि व्यवस्था

भूमिकर के विभाजन के आधार पर मुगल साम्राज्य की समस्त भूमि 3 वर्गों में विभाजित थी

(i) खालसा- प्रत्यक्ष रूप से खालसा के नियंत्रण में

(ii) जागीर भूमि- तनख्वाह के बदले दी जाने वाली भूमि

(iii) सयूरगल- अनुदान में दी गई लगानहीन भूमि

 

किसान तीन भागों में विभाजित थे

(i) खुदकाश्त- उसी गांव की भूमि पर खेती करते थे, जहां वो रहते थे।

(i) पाही काश्त- दूसरे गांव जाकर खेती करते थे।

(iii) मुजारियन- किराए पर लेकर भूमि पर कृषि करते थे।

 

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