राज्य कार्यपालिका

राज्य कार्यपालिका

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विश्लेषणात्मक अवधारणा

 

संविधान में राष्ट्रीय एवं प्रान्तीय दोनों ही स्तरों पर संसदीय कार्यपालिका को स्वीकार किया गया है। इस व्यवस्थ राज्यपाल, राज्य की कार्यपालिका का औपचारिक प्रधान होता है तथा मुख्यमंत्री और उसकी मंत्रिपरिषद राज्य स्तर पर सरकार चलाते है। राज्य के स्तर पर राज्यपाल, मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद मिलकर कार्यपालिका का निर्माण करते हैं। राज्यपाल की राज्य में दोहरी भूमिका होती है अर्थात् वह संघ सरकार का राज्य में प्रतिनिधि एवं राज्य का प्रथम नागरिक भी होता है। राज्यपाल की नियुक्ति केन्द्र सरकार के द्वारा होती है। अतः राज्यपाल के फैसलों को अकसर राज्य सरकार के कार्यों में केन्द्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। राज्यपाल की भूमिका राष्ट्रपति के शासन (अनुच्छेद-356) के संदर्भ में सर्वाधिक विवादास्पद देखी द्य जाती है। राज्यपाल द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है। परिणामस्वरूप संघीय सरकार राज्य सरकार का अधिग्रहण कर लेती हैं।

 

राज्य सरकारों की कार्य प्रणालियों का वर्णन संविधान के भाग 6 में अनुच्छेद 152 से 237 के अंतर्गत किया गया है। संघ शासित राज्यों से संबंधित प्रावधान संविधान के भाग 8 के अनुच्छेद 239 से 242 के अंतर्गत किया गया है

  • राज्यपाल की नियुक्ति एवं योग्यताएं: राष्ट्रपति, राज्यपाल की नियुक्ति करता है। राज्यपाल, राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है। संविधान के अनुच्छेद 156 के तहत राज्यपाल की नियुक्ति 5 वर्षों के लिए होती है, परंतु इससे पूर्व भी वह राष्ट्रपति को त्याग-पत्र देकर पद त्याग कर सकता है।
  • राज्यपाल की योग्यताएं: संविधान के अनुच्छेद 157 व 158 के अंतर्गत किसी व्यक्ति में राज्यपाल पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निर्धारित की गई हैं:
  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।
  3. किसी लाभ के पद पर ना हो।
  4. राज्यपाल संसद अथवा विधानसभा का सदस्य नहीं होगा। यदि राज्यपाल संसद अथवा विधानसभा का सदस्य है तो जिस तिथि को वह राज्यपाल का पद धारण करेगा उसी तिथि से उसका संसद अथवा राज्य विधानसभा में पद रिक्त मान लिया जाएगा।
  • राज्य में राज्यपाल की नियुक्ति से पहले राष्ट्रपति को संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श अवश्य करना चाहिए।
  • राज्यपाल को उसके कार्यकाल (5 वर्ष) से पहले किन्हीं राजनैतिक कारणों से नहीं हटाया जाना चाहिए।
  • राज्यपाल एक सक्रिय राजनीतिज्ञ नहीं होना चाहिए साथ ही उसे स्थानीय दलीय राजनीति से संबंधित नहीं होना चाहिए।
  • राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 356 को लागू करने की सिफारिश करने से पहले विभिन्न संभव विकल्पों की तलाश करनी चाहिए तथा अनुच्छेद 356 का प्रयोग अंतिम विकल्प के रूप में होना चाहिए।
  • राज्यपाल द्वारा मंत्रिमंडल को बहुमत सिद्ध करने का आदेश सदन के पटल पर प्रस्तुत किया जाना चाहिए ना कि राजभवन में।
  • राज्यपाल द्वारा शपथ या प्रतिज्ञानः संविधान के अनुच्छेद 159 में राज्यपाल की शपथ से संबंधित प्रावधान किए गए हैं। राज्यपाल, संविधान के संरक्षण, और विधि के परिरक्षण एवं सुरक्षा की शपथ लेता है। राज्यपाल पद ग्रहण करने से पूर्व संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष शपथग्रहण करता है।
  • राज्यपाल के विशेषाधिकारः संविधान के अनुच्छेद 361 के अंतर्गत राष्ट्रपति एवं राज्यपाल को अनेक विशेष अधिकार प्रदान किए गए हैं। राज्यपाल अपने पद पर रहते हुए अपने द्वारा किए गए कार्यों के लिए किसी भी न्यायिक अभियोग के लिए उत्तरदायी नहीं होगा। राज्यपाल के व्यक्तिगत कार्यों के लिए उनके पद धारण के दौरान उनके विरुद्ध केवल सिविल मुकदमा चलाया जा सकता है। आपराधिक मुकदमे नहीं किंतु इसके लिए भी निम्नलिखित तीन शर्ते पूरी करनी होगीः
  1. राज्यपाल को 14 दिन पूर्व लिखित सूचना देनी होगी।
  2. एक ही सूचना के बाद कम-से-कम 2 महीने का समय देना होगा।
  3. सूचना में पक्षकार का नाम, पता तथा कार्यवाही की प्रकृति का विवरण देना होगा।
       टिप्पणीः उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि राज्यपाल को प्राप्त संवैधानिक विशेषाधिकार संविधान के प्रावधान के उल्लंघन के लिए नहीं है।
  • राज्यपाल की शक्तियां: राज्यपाल भी राष्ट्रपति की तरह व्यापक शक्तियां रखता है, जिस प्रकार राष्ट्र का समस्त कार्य राष्ट्रपति के नाम से होता है, उसी प्रकार राज्य का समस्त कार्य राज्यपाल के नाम से किया जाता है। राज्यपाल, राज्य की कार्यपालिका का नाममात्र का प्रमुख होता है, वास्तविक शक्ति मुख्यमंत्री में निहित होती है। मुख्यमंत्री मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है।
  • कार्यकारी शक्तियाँ: राज्यपाल राष्ट्रपति के ही समान कार्यकारी, विधायी, वित्तीय तथा न्यायिक शक्तियों से सम्पन्न होता है, परन्तु उसके पास राष्ट्रपति की तरह कूटनीतिक,सैन्य या आपातकालीन शक्तियाँ नहीं होती है। संविधान में राज्यपाल को कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ भी प्राप्त हैं, जो कि राष्ट्रपति को प्राप्त नहीं हैं। संविधान के अनुच्छेद 154(1) के अनुसार, राज्य की कार्यकारी शक्ति राज्यपाल में निहित होगी तथा वह इस शक्ति प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा करेगा। राज्य सरकार की कार्यपालिका से सम्बंधित सभी कार्यवाहियाँ औपचारिक रूप से राज्यपाल के नाम से सम्पन्न होती हैं। राज्यपाल की कार्यपालिका अथवा प्रशासकीय शक्तियों के अन्तर्गत. निम्नलिखित शक्तियाँ शामिल हैं:
  1. संविधान के अनुच्छेद 164 (1) के अन्तर्गत राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है तथा मुख्यमंत्री की सलाह से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है।
  2. राज्यपाल मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्रियों को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है। वे राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त ही अपने पद पर बने रहते हैं। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा ओडिशा में एक जनजातीय कल्याण मंत्री राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जाता है।
  3. संविधान के अनुच्छेद 167 के अनुसार, राज्यपाल राज्य के प्रशासन और विधायी विषयों से सम्बंधित कोई भी जानकारी मुख्यमंत्री से मांग सकता है तथा किसी मंत्री द्वारा लिए गए किसी निर्णय को विचार के लिए मंत्रिपरिषद् के समक्ष रखवा सकता है।
  • राज्यपाल को प्राप्त अन्य प्रमुख कार्यकारी शक्तिः
  1. राज्यपाल उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के विषय में राष्ट्रपति को परामर्श देता है।
  2. राज्यपाल को राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्यों को निलम्बित करने का अधिकार भी प्राप्त है।
  3. राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने पर राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद-356 के अन्तर्गत राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा करता है।
  4. राज्य में राष्ट्रपति शासन के दौरान राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल को व्यापक कार्यकारी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
  5. राज्य-सूची के विषयों पर राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने का अधिकार है। समवर्ती सूची में भी उसका यह अधिकार तब तक अधिकार है, जब तक संसद द्वारा बनाए गए कानून से राज्य विधानसभा द्वारा बनाए गए कानून का विरोध नहीं होता है।
  • विधायी शक्तियाँ: राज्यपाल राज्य विधायिका का अभिन्न अंग है (अनुच्छेद 168 )।
  1. यदि राज्यपाल को यह विश्वास हो जाए कि आंग्ल-भारतीय समुदाय का विधानसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो राज्यपाल राज्य की विधानसभा में आंग्ल-भारतीय समुदाय के एक सदस्य को मनोनीत कर सकता है (अनुच्छेद 333)।
  2. यदि विधानमंडल द्विसदनीय है, तो राज्यपाल विधान परिषद (उच्च सदन) के कुल सदस्यों के 1/6 भाग को मनोनीत कर सकता है। इन सदस्यों को साहित्य, कला, विज्ञान, सहकारी आंदोलन या समाज सेवा में से किसी या किन्ही विषयों पर व्यापक अनुभव होना चाहिए।
  3. यदि किसी मंत्री ने किसी विषय पर निर्णय लिया हो और मंत्रिपरिषद् ने उस विषय पर संज्ञान न लिया हो तो राज्यपाल, मुख्यमंत्री से उस मामले पर विचार करने की माँग कर सकता है।
  4. राज्यपाल, विधायिका से सम्बंधित सभी कार्यों की जानकारी माँग सकता है तथा आवश्यकता पड़ने पर विधानमंडल में सूचना भेज सकता है।
  5. राज्यपाल, राज्य विधानसभा के सत्र को आहुत (सत्र का प्रारम्भ) तथा सत्रावसान (सत्र की समाप्ति) करता है तथा सदन को विघटित (भंग) कर सकता है।
  6. राज्यपाल, विधानसभा का विघटन मुख्यमंत्री की सलाह पर करता है। कोई भी विधेयक तभी अधिनियम (कानून) बनता है, जब उस पर राज्यपाल हस्ताक्षर करें।
  7. राज्यपाल, किसी विधेयक (यदि वह विधेयक धन विधेयक नहीं है तो) को अनुमति दे सकता है, नहीं भी दे सकता है या विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकता है।
  8. राज्यपाल, दोनों सदनों को अधिवेशन के लिए आहूत कर सकता है। नये विधानमंडल के गठन के तत्काल बाद पहली बैठक एवं प्रत्येक वर्ष का प्रथम अधिवेशन राज्यपाल के अभिभाषण से आरंभ किया जाता है।
  • अध्यादेश जारी करने की शक्तिः राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने की शक्ति संविधान के अनुच्छेद-213 के अन्तर्गत प्रदान की गई है। राज्यपाल को अध्यादेश जारी करने की शक्ति एक महत्वपूर्ण विधायी शक्ति है, जो उस समय प्रयोग की जाती है जब राज्य का विधानमण्डल सत्र में नहीं चल रहा। राज्यपाल केवल राज्य विधान सभा द्वारा पारित किये जा सकने वाले विधियों पर ही अध्यादेश जारी कर सकता है। तथा इसका प्रभाव राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित विधियों के समान होता है। अध्यादेश को स्थायी स्वरूप प्रदान करने हेतु यह आवश्यक है कि, राज्य विधानमण डल अध्यादेश जारी होने के छह सप्ताह के अन्दर विधि बनाकर उसे स्वीकार करे अन्यथा छह सप्ताह की अवधि के पश्चात् अध्यादेश प्रभावहीन हो जाता है। अध्यादेश को राज्यपाल स्वेच्छा से जब चाहे तब वापस ले सकता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में राज्यपाल तब तक अध्यादेश जारी नहीं कर सकता जब तक राष्ट्रपति ने उसे इस सम्बंध में अनुमति न दी हो। ये निम्न हैं:
       (i) ऐसे विधेयक जिनके पारित होने के लिए राष्ट्रपति की पूर्वानुमति आवश्यक है।
       (ii) वह विधेयक जो राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखने योग्य हो।
  • राज्यपाल द्वारा जारी अध्यादेश का वही बल और प्रभाव होता है, जो राज्य विधानमण्डल द्वारा निर्मित विधि का होता है।
  • राज्य विधानमण्डल यदि छह सप्ताह के अन्दर राज्यपाल द्वारा जारी अध्यादेश को खारिज करने का संकल्प पारित कर देता है तो वह प्रभावहीन हो जायेगा। राज्यपाल कभी भी अध्यादेश को वापस ले सकता है। यदि विधानपरिषद् वाले राज्यों में दोनों सदनों की बैठक अलग-अलग तिथियों में बुलायी जाती है, तो 6 सप्ताह की अवधि की गणना पश्चात्वती (बाद वाली) तिथि से की जाएगी। अर्थात् जिस सदन की बैठक बाद में प्रारम्भ होगी गणना उस सदन की बैठक के प्रारम्भ होने की तिथि से की जाएगी।
  • वित्तीय शक्तियाँ: राज्यपाल प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ में वित्त मंत्री द्वारा वार्षिक आय-व्यय का अनुमानित वित्तीय विवरण (बजट) विधानमण्डल के समक्ष रखवाता है (अनुच्छेद-202):
  1. राज्यपाल के पूर्व सहमति के बिना धन विधयकों को राज्य विधानसभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।
  2. किसी अप्रत्याशित व्यय के वहन के लिए राज्यपाल आकस्मिक निधि से अग्रिम धनराशि ले सकता है।
  3. राज्यपाल, राज्य वित्त आयोग की रिपोर्ट तथा नियंत्रक व महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट राज्य विधानसभा के पटल पर रखवाता है।
  4. राज्यपाल, ग्राम पंचायतों एवं नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए हर पाँच वर्ष पर वित्त आयोग का गठन करता है।
  5. कोई भी अनुदान बिना राज्यपाल के अनुमति के विधानसभा से प्राप्त नहीं की जा सकती।
  • न्यायिक शक्तियाँ: संविधान के अनुच्छेद-161 के अनुसार राज्यपाल को राज्य सची, समवर्ती सूची के विषयों पर आधारित कानूनों (विधि), क्षमादान की शक्तियाँ प्राप्त हैं। राज्यपाल किसी दोषी व्यक्ति के दंड को कम कर सकता है। ऐसा दंड की प्रकृति में परिवर्तन कर या दण्ड की अवधि को कम करके कर सकता है।
  • राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान शक्ति में अंतर
  1. राज्यपाल मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल सकता है, किन्तु राष्ट्रपति की तरह क्षमादान (पूर्ण माफ) नहीं कर सकता है।
  2. राज्यपाल सैन्य न्यायालय द्वारा सजा प्राप्त व्यक्ति की सजा कम नहीं कर सकता, जबकि राष्ट्रपति, कोर्ट मार्शल की सजा को भी कम कर सकता है या क्षमा कर सकता है। ?
  3. राज्यपाल को राज्य सूची व समवर्ती सूची से सम्बंधित विषयों पर क्षमादान शक्ति का प्रयोग कर सकता है परन्तु राष्ट्रपति संघ सूची एवं समवर्ती सूची के साथ ही अन्य विषयों पर क्षमादान शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
  4. राज्यपाल, उच्च न्यायालय से सलाह कर जिला न्यायाधीश की नियुक्ति, स्थानांतरण और प्रोन्नति कर सकता है। राज्यपाल राज्य न्यायिक आयोग से जुड़े व्यक्तियों की भी नियुक्ति करता है। इस संदर्भ में वह राज्य उच्च न्यायालय, लोक सेवा आयोग से विचार करता है।
  • राज्यपाल की वीटो शक्ति (साधारण विधेयकों के संदर्भ में): जब कोई सामान्य विधेयक अधिनियम बनाने के लिय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो राज्यपाल के पास निम्नलिखित चार विकल्प होते हैं
  1. विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर दे।
  2. विधेयक पर तुरन्त कोई निर्णय करके उसे अपने पास आरक्षित कर सकता है।
  3. यदि वह विधेयक धन विधेयक नहीं है तो विधेयक को पुनर्विचार लिये विधानमंडल के पास वापस भेज दे। यदि विधानमंडल द्वारा विधेयक में संशोधन करके अथवा बिना संशोधन किये पुनः राज्यपाल के पास भेज दिया जाता है तो ऐसी स्थिति में राज्यपाल अपनी स्वीकृति देने के लिये बाध्य होता है। इस वीटो को विलम्बनकारी वीटो कहा जा सकता है।
  4. राज्यपाल कुछ परिस्थितियों में विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकता है।
  • किसी राज्य विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु सुरक्षित रखने की परिस्थितियाँ:
  1. यदि विधेयक, संविधान के उपबंधों के विरुद्ध हो।
  2. यदि राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के विरुद्ध हो।
  3. यदि देशहित के विरुद्ध हो।
  4. यदि राष्ट्रीय महत्व का हो या अनुच्छेद 31(क) के उपबंधों से।
  5. वित्तीय आपात के समय राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित धन विधेयक के संदर्भ में।
  6. यदि उच्च न्यायालय की स्थिति को प्रभावित करता हो।
  • विवेकाधीन शक्तियाँ: संविधान के अनच्छेद-163(1) में कहा गया है कि, जिन बातों के सम्बंध में संविधान द्वारा या उसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि, वह उन कार्यों को स्वविवेकानुसार करे, उन बातों को छोडकर राज्यपाल को अपने अन्य सभी कृत्यों के निर्वहन में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा। इससे स्पष्ट है कि, संविधान द्वारा राज्यपाल को कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ भी प्रदान की गई हैं, जिनका प्रयोग वह मंत्रिपरिषद के परामर्श के बिना कर सकता है। दूसरे शब्दों में, राज्यपाल अपने समस्त कृत्य मुख्यमंत्री की सलाह के अनुसार ही नहीं करता है। अपितु वह कुछ कार्य मुख्यमंत्री की सलाह के बिना भी करता है। ऐसे कार्य उसकी विवेकाधीन शक्ति के अन्तर्गत आते हैं। राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति को दो वर्गों में बाँटा जा सकता हैं:
  1. संविधान में प्रत्यक्ष उपबंधित शक्तियाँ
  • संविधान के अनुच्छेद-200 के अनुसार, राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित करना।
  • राज्य विधानमण्डल द्वारा पारित किसी विधेयक को एक बार पुनर्विचार के लिए लौटा देना।
  • संविधान के अनुच्छेद-356 के अन्तर्गत राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता पर राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा करना।
  • किसी मंत्री द्वारा लिये गये निर्णय को मंत्रिपरिषद के समक्ष विचार हेतु रखने को कहना।
  • संविधान के अनुच्छेद-371 के अनुसार, कुछ विशेष राज्यों के राज्यपालों को पाँचवीं व छठी अनुसूची के सम्बंध में विवेकाधीन शाक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
  • यदि कोई दल या गठबंधन चुनाव के बाद सरकार बनाने की स्थिति में न हो तो वह विधानसभा का विघटन कर सकता है।
  • वह मुख्यमंत्री से प्रस्तावित विधानों एवं निर्णयों के सम्बंध में जानकारी माँग सकता है।
  1. अप्रत्यक्ष विवेकाधीन शक्तियाँ
  • स्पष्ट बहुमत न होने की स्थिति में अथवा गठबन्धन दल या बहुमत प्राप्त दल का नेता न चुने जाने की स्थिति में मुख्यमंत्री की नियुक्ति करना।
  • यदि राज्यपाल को यह प्रतीत हो कि, विधानसभा में सरकार का बहुमत समाप्त हो गया है तो वह मुख्यमंत्री को बहुमत सिद्ध करने अथवा त्याग-पत्र देने के लिए कह सकता है।
  • यदि विधानसभा द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया गया है और मंत्रिपरिषद त्याग-पत्र नहीं देती है तो राज्यपाल मंत्रिपरिषद् को भंग कर सकता है।
  • राज्यपाल, विशेष परिस्थितियों में स्वविवेक से विधान सभा का अधिवेशन बुला सकता है।
  • वह मुख्यमंत्री सहित किसी मंत्री के विरुद्ध भ्रष्टाचार आदि के आरोपों के आधार पर मुकदमा दायर करने का आदेश दे सकता है।

 


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