प्राचीन भारत में मूर्तिकला (मूर्तिकला भाग 1)

प्राचीन भारत में मूर्तिकला (मूर्तिकला भाग 1)

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प्राचीन भारत में मूर्तिकला (मूर्तिकला भाग 1)

 

विश्लेषणात्मक अवधारणा

भारतीय मूर्तिकला भारत के उपमहाद्वीपों की सभ्यताओं की मूर्ति तकला परंपराएं, प्रकार और शैलियां का संगम है। भारतीय भवन प्रचुर रूप से मूर्ति कला से अलंकृत हैं और प्राय: एक-दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते। प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय वास्तुकला के बारे में एक अद्भुत तथ्य यह है कि मूर्ति कला उसका एक अविभाज्य अंग थी।

इस संदर्भ में सिधु घाटी की संस्कृति ही शायद एकमात्र अपवाद है, क्योंकि उसकी इमारतें उपयोगितावादी हैं, पर उनमें कलात्मक कौशल नहीं है। भारतीय मूर्तिकला की विषय-वस्तु हमेशा लगभग काल्पनिक मानव रूप होते थे, जो लोगों को  हिंदू, बौद्ध या जैन धर्म के सत्यों की शिक्षा देने के काम आते थे। अनावृत्त मूर्ति  का प्रयोग शरीर को आत्मा के प्रतीक और देवताओं के कल्पित स्वरूपों को दर्शाने के लिए किया जाता था।

मूर्ति यों में  हिंदू देवताओं के बहुत से सिर व भुजाएं इन देवताओं के विविध रूपों और शक्तियों को दर्शाने के लिए आवश्यक माने जाते थे।

 

सिन्धु मूर्ति तकला

  • हड़प्पा सभ्यता में मृणमूर्ति तयों अर्थात मिट्टी की मूर्ति , प्रस्तर मूर्ति तथा धातु मूर्ति  तीनों बनाई जाती थीं।
  • धातु मूर्तियों के निर्माण के लिये हड़प्पा सभ्यता में मुख्यत: तांबा व कांसा का प्रयोग किया जाता था।
  • मिट्टी की मूर्तियां लाल मिट्टी एवं क्वाट्र्ज नामक प्रस्तर के चूर्ण से बनाई गई कांचली मिट्टी से बनाई जाती थीं। सेलखड़ी पत्थर से बनी मोहनजोदड़ो की योगी मूर्ति विश्व प्रसिद्ध है।
  • मृणमूर्ति यों में हड़प्पा काल में मुख्यत: सीटियां, झुनझुने, खिलौने और वृषभ आदि बनाए गए। मोहनजोदड़ो से कांसे की नर्तकी की धातुमूर्ति मूर्ति कला का प्रथम उत्कृष्ट उदाहरण है।
  • इन सभी मूर्ति शिल्पों में से सबसे सुरक्षित है,एक व्यक्ति का 7 इंच ऊंचा सिर और कंधा, जिसके चेहरे पर छोटी सी दाढ़ी और बारीक कटी हुई मूंछे हैं।
  • इस मूर्ति और मोहनजोदड़ो से मिले अन्य दाढ़ी वाले सिरों तथा सुमेरिया के मूर्ति संग्रह में कुछ समानता है।

 

मौर्यकालीन मूर्ति कला

  • मौर्यकाल में मूर्तियों का निर्माण चिपकवा विधि या सांचे में ढालकर किया जाता था।
  • सारनाथ स्तंभ के शीर्ष पर बने चार सिंहों की आकृतियां तथा इसके नीचे की चित्र-वल्लरी अशोककालीन मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
  • मौर्यकाल की मूर्तियां पाटलिपुत्र, वैशाली, तक्षशिला, मथुरा, कौशाम्बी, अहिच्छत्र, सारनाथ आदि से प्राप्त हुई हैं। मौर्यकाल की मानवीय आकृतियों का प्रदर्शन करने वाली अनेक पत्थर की कलाकृतियां भी पायी गयी हैं।
  • दीदारगंज के निवासियों को मिली महिला की संरक्षित प्रतिमूर्ति त जो पटना संग्रहालय में रखी हुई है। इसमें प्रयोग की गयी पालिश और रख-रखाव की तकनीक निसंदेह रूप से मौर्य काल की है।
  • इतिहासकारो के अनुसार मौर्यकालीन मूर्तिकला पर ईरान एवं यूनान की कला का प्रभाव था।

 

मौर्योत्तरकालीन मूर्तिकला

  • शुंग-सातवाहन युग की कला का प्रभाव उत्तर भारत के बोधगया, सांची और भरहुत में बौद्ध आश्रमों के प्रवेश द्वार और रेलिंग में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
  • प्रतीकात्मकता इस काल की मूर्तिकला की प्रधान विशेषता है।
  • इसी काल में गांधार शैली और मथुरा शैली का विकास हुआ।
  • भारत में मूर्तिकला की तीन शैलियां हैं-
  • गंधार, मथुरा और अमरावती। इन तीनों में अंतर इस प्रकार हैं गंधार शैली- इसे भारतीय-यूनानी कला के रूप में भी जाना जाता है। यह मुख्य रूप से बौद्ध चित्रकला और ग्रीकरोमन देवताओं के मंदिरों से प्रभावित हैं। यह कंधार क्षेत्र और उत्तर-पश्चिमी सीमांत में विकसित हुई है।
  • मथुरा शैली- यह स्वदेशी शैली के रूप में विकसित हुई है। इसमें बुद्ध को मुस्कराते चेहरे के साथ दिखाया गया है। यह मथुरा, सोंख, कंकालीटीला में व आसपास के क्षेत्रों में विकसित हुई है।
  • आयाग-पट्ट - मथुरा शैली के अंतर्गत जैन धर्म से संबंधित मूर्तियों को एक चौकोर प्रस्तर पट्टिका पर बनाया गया है जिसे आयाग-पट्ट कहते हैं।
  • कंकाली टीला (मथुरा) के उत्खनन से सैकड़ों आयाग-पट्ट मूर्तियां मिली हैं जिनमें तीर्थकरों का चित्रण है।
  • समस्त तीर्थकर प्रतिमाएं अजानबाहु हैं, इसमें उनकी खुली छाती, उस छाती पर एक त्रिभुज और उस त्रिभुज में कमल का पूल अंकित है जिसे ‘श्रीवत्स चिन्ह कहते हैं।
  • अमरावती शैली- इस शैली की मूर्तियां सफेद संगमरमर का उपयोग करके बनाई गई है। इसकी मूर्तियां केवल बुद्ध के जीवन और जातक कथाओं को दर्शाती हैं। इसकी विकास कृष्णा-गोदावरी की निचली घाट, अमरावती के आसपास के क्षेत्रों में विकसित हुई है।

 

गुप्तकालीन मूर्तिकला

  • गुप्त मूर्तिकला में बौद्ध, जैन, ब्राह्मण-हिन्दू धर्म के अलावा गैर-धार्मिक विषयों की भी मूर्तियां बनाई गई हैं।
  • गुप्तकालीन मूर्तियों की निर्मलता, अंग सौंदर्य, वास्तविक हाव-भाव एवं जीवंतता ने कला को ऊंचाई प्रदान की।
  • एलोरा (दशावतार मूर्तियां), खजुराहो, देवगढ़, आदि जगहों पर विष्णु के 10 अवतारों को मूर्त रूप दिया गया है।
  • सारनाथ से प्राप्त धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा तथा सुल्तानगंज (बिहार) से प्राप्त 5 फीट ऊंची, 12 टन वजनी बुद्ध की ताम्रमूर्ति अतिविशिष्ट हैं।
  • सारनाथ, मथुरा और पाटलिपुत्र गुप्तकालीन मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे।

 

मुद्राओं के प्रकार

  • लेटी हुई मूर्तियों को ‘शयन’ कहा गया है।
  • बैठी हुई मूर्तियों को ‘आसन’ कहा गया है।
  • खड़ी मूर्तियों को ‘स्थान’ कहा गया है।

 

भारतीय प्रतिमाओं की मुद्राएं

  • भद्रासन में मूर्ति को पैर खोलकर सीधे खड़ा करके बनाया जाता है।
  • समभंग में मूर्ति को बिल्कुल सीधा खड़ा करके इस प्रकार बनाया जाता है कि मूर्ति  के शरीर में कोई भी अंग भंग नहीं हो।
  • अभंग में मूर्ति के शरीर की स्थिति समभंग ही होती है। त्रिभंग प्रकार की मुद्रा में शरीर के तीन अंगों को तीन दिशाओं। में बनाया जाता है।
  • शालभंजिका मुद्रा बुद्ध के जन्म का प्रतीक है।

 


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