भारत में संवैधानिक विकास का क्रम

भारत में संवैधानिक विकास का क्रम

Category :

विश्लेषणात्मक अवधारणा

भारतीय संविधान निमाताओं की बुद्धिमत्ता और दूरदृष्टि का प्रमाण है कि वे देश को एक ऐसा सविधान दे सके, जिसमें जनता द्वारा मान्य आधारभूत मूल्यों और सर्वोच्च आकांक्षाओं को स्थान दिया गया था। यही वह कारण है जिसकी वजह से इतनी जटिलता से बनाया संविधान न केवल अस्तित्व में है, बल्कि एक जावत सच्चाई भी है जबकि विश्व के अन्य देशों के संविधान भारतीय संविधान की भाँति वृहद एवं समसमायिक आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधनमयी नहीं है।

संविधान की परिभाषा

‘‘संविधान एक ऐसा लिखित या अलिखित वैधानिक दस्तावेज है जिसके आधार पर किसी राष्ट्रीय राज्य की राजनैतिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था का सुचारू रूप से संचालन किया जाता है‘‘। विश्व में सर्वप्रथम 1215 ईसवी में ब्रिटेन में एक अधिकार पत्र जारी किया गया जिसे मैग्नाकार्टा के नाम से जाना जाता है। ब्रिटेन का संविधान अलिखित संविधान का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। विश्व में सर्वप्रथम लिखित संविधान अमेरिका में 4 मार्च, 1789 को लागू हुआ था, जिसे फिलाडेल्फिया सम्मेलन 1787 ईसवी में अपनाया गया था। भारत में संवैधानिक विकास ईस्ट इंडिया कंपनी एवं ब्रिटिश क्राऊन के अंतर्गत हुआ है।

ईस्ट इंडिया कंपनी के अंतर्गत संवैधानिक विकास

  • रेग्युलेटिंग एक्ट,1773: ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियंत्रित व नियमित करने के उद्देश्य से ब्रिटिश संसद द्वारा उठाया गया यह पहला कदम था। यह एक्टब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉर्ड नार्थ के द्वारा गोपनीय समिति की सिफारिश पर 1773 ईसवी में पारित किया गया था।
  • पिट्स इंडिया एक्ट, 1784: यह एक्ट ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारतीय राज्य क्षेत्र पर ब्रिटिश ताज (क्राऊन) के स्वामित्व के दावे का पहला दस्तावेज था, जिसके माध्यम से कंपनी के वाणिज्य व राजनीतिक कार्यों को पृथक् किया गया था। वाणिज्यिक कार्यों के लिए कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स तथा राजनीतिक कार्यों के लिए बोर्ड ऑफ कंट्रोल की स्थापना की गई थी।
  • चार्टर अधिनियम, 1793: इस अधिनियम के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक अधिकार को भारत में 20 वर्षों के लिए बढ़ाया गया था तथा नियंत्रक मंडल के सदस्यों को भारतीय राज्य से वेतन देने की व्यवस्था की गई थी। इसके अतिरिक्त इंडियन सिविल सर्विसेज (आईसीएस) को आयोजित करने की स्वीकृति प्रदान की गई थी, जो सर्वप्रथम 21 अप्रैल, 1793 को संपन्न हुई थी। चार्टर एक्ट 1793 के द्वारा ब्रिटिश भारतीय क्षेत्रों में राजस्व बोर्ड एवं राजस्व पुलिस की स्थापना का प्रावधान किया गया था।
  • चार्टर एक्ट, 1813: इस एक्ट की द्वारा भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करके कुछ विशेष प्रतिबंधों के साथ समस्त ब्रिटिश नागरिकों को भारत से व्यापार करने की छूट प्रदान की गई। किंतु ईस्ट इंडिया कंपनी का चाय और चीन के साथ व्यापार पर एकाधिकार स्थापित था। चार्टर एक्ट 1813 के द्वारा कंपनी को गवर्नर जनरल तथा प्रधान सेनापतियों को नियुक्त करने का भी अधिकार प्रदान किया गया था, जिसके लिए ब्रिटिश क्रॉऊन की अनुमति लेना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त इस एक्ट में भारत में शिक्षा के प्रसार के लिए 1 लाख की वार्षिक धनराशि के व्यय का प्रावधान किया गया था तथा ईसाई मिशनरियों को धर्म प्रचार की अनुमति प्रदान की गई थी।
  • 1833 का चार्टर अधिनियमः यह अधिनियम ब्रिटिश भारत के प्रशासनिक केंद्रीकरण की दिशा का पहला निर्णायक कदम था, जिसके द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। इसमें समस्त नागरिक एवं सैन्य शक्तियां निहित थी किन्तु मद्रास और बंबई के गवर्नरों को विधायी शक्तियों से वंचित कर दिया गया। इस चार्टर अधिनियम के अंतर्गत इसके पूर्व बनाए गए कानूनों को नियामक कानून एवं नए कानून के तहत बनाए गए कानूनों को अधिनियम कहा गया। चार्टर एक्ट 1833 के अंतर्गत ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया तथा यह प्रशासनिक संस्था के रूप में कार्य करने लगी। इसके अतिरिक्त सिविल सेवकों के चयन के लिए खुली प्रतियोगिता के आयोजन का शुभारंभ करने का प्रयास किया गया।
  • चार्टर एक्ट-1853: 1793 से 1853 ईसवी के मध्य ब्रिटिश संसद द्वारा पारित चार्टर एक्ट श्रृंखला का यह अंतिम अधिनियम था। संवैधानिक विकास की दृष्टि से भी यह एक महत्वपूर्ण अधिनियम था। इस अधिनियम में पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी कार्यों और प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया गया। इस अधिनियम के तहत 6 नए पार्षद जोड़े गए जिन्हें विधान पार्षद कहा गया जो गवर्नर जनरल की विधान परिषद में शामिल थे। इन 6 सदस्यों में से 4 सदस्यों काचुनाव बंगाल, मद्रास, मुंबई और आगरा की स्थानीय प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना था। पहली बार भारतीय केंद्रीय विधान परिषद में स्थानीय प्रतिनिधित्व को शामिल किया गया। इस अधिनियम के तहत भारत के लिए 12 सदस्यों वाली विधान परिषद की स्थापना की गई जो विधि निर्माण के लिए उत्तरदायी थी। इस अधिनियम के तहत सिविल सेवकों की भर्ती हेतु खुली प्रतियोगिता की व्यवस्था प्रारंभ की गई और इसके लिए 1854 ईसवी में भारतीय सिविल सेवा के संबंध में परामर्श देने हेतु मैकाले समिति नियुक्त की गई तथा गवर्नर जनरल की परिषद में विधि सदस्य को पूर्ण सदस्य बना दिया गया।

ब्रिटिश क्राऊन (शासन) के अंतर्गत

  • भारत शासन अधिनियम, 1858: इस अधिनियम को 1857 के विद्रोह के पश्चात् पारित किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य था कि 1857 के विद्रोह जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। इस अधिनियम के तहत भारत का शासन ब्रिटिश क्राऊन के अधीन चला गया और भारत में मुगल बादशाह के पद को समाप्त कर दिया गया। गवर्नर जनरल के पद का नाम बदलकर भारत का वायसराय कर दिया गया, जो भारत में ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन गया इस प्रकार लॉर्ड कैनिंग भारत के प्रथम वायसराय बने। इस अधिनियम के तहत भारत में द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त कर दिया गया और नियंत्रण बोर्ड और निदेशक कोर्ट को समाप्त कर दिया गया। गवर्नर जनरल के पद का नाम बदलकर भारत का वायसराय कर दिया गया, जो भारत में ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन गया इस प्रकार लॉर्ड कैनिंग भारत के प्रथम वायसराय बने। इस अधिनियम के तहत भारत में द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त कर दिया गया और नियंत्रण बोर्ड और निदेशक कोर्ट को समाप्त कर दिया गया।
  • भारत परिषद अधिनियम, 1861: 1861 के अधिनियम में लोक प्रतिनिधित्व का समावेश किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य भारत में शासन चलाने में सहयोग प्रदान करना था। इस अधिनियम के तहत वायसराय की परिषद में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल किया गया और उन्हें विधायी कार्यों में सहयोग करने का अधिकार प्रदान किया गया था। वायसराय की शक्तियों का विकेंद्रीकरण कर दिया गया। वायसराय लॉर्ड कैनिंग ने 1862 ईसवी में नवगठित केंद्रीय विधान परिषद में पटियाला के महाराजा नरेंद्र सिंह, बनारस के राजा देव नारायण सिंह तथा सर दिनकर राव को शामिल किया गया। बंगाल उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और पंजाब में क्रमशः 1862, 1866 और 1897 में विधान परिषदों का गठन किया गया।
  • भारत परिषद अधिनियम, 1892: यह अधिनियम वायसराय लॉर्ड लैंसडाउन के कार्यकाल में पारित हुआ। इसके तहत केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में अतिरिक्त गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गई लेकिन बहुमत सरकारी सदस्यों का ही रहता था। इस अधिनियम में विधान परिषद की शक्तियों में वृद्धि की गई, जिसके तहत विधान परिषद के सदस्यों को आर्थिक नीतियों एवं बजट पर बहस करने की अनुमति प्रदान की गई, लेकिन मतदान का अधिकार नहीं दिया गया। इस अधिनियम में परिषद के सदस्यों को जनहित से संबंधित मामलों में कुछ सीमा के तहत प्रश्न पूछने का अधिकार प्रदान किया गया लेकिन पूरक प्रश्न नहीं पूछे जा सकते थे।
  • भारत परिषद अधिनियम, 1909: बीसवीं सदी के प्रारंभिक कुछ वर्षों में ब्रिटिश भारतीय सरकार पर तीन प्रकार से दबाव बढ़ रहा था। एक तरफ जहां उदारवादी अधिक सुधारों की मांग कर रहे थे तथा उग्रवादी स्वराज्य प्राप्ति के लिए आंदोलन कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर क्रांतिकारी अपने लक्ष्य की प्राप्ति अर्थात् विदेशी शासन के अंत के लिए उग्रवादी उपायों का उपयोग कर रहे थे। इस असंतोष को कुछ सीमा तक कम करने तथा मुस्लिम अल्पसंख्यकों को तुष्ट करने के लिए इस अधिनियम को लाया गया। इस अधिनियम को मॉर्ले-मिंटो सुधार अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि उस समय लॉर्ड-मॉर्ले इंग्लैंड में भारत के राज्य सचिव तथा लॉर्ड मिंटो भारत में वायसराय थे। इस अधिनियम के तहत केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषद के आकार में वृद्धि की गई और केंद्रीय परिषद के सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई जबकि प्रांतीय विधान परिषद में इनकी संख्या अलग-अलग थी। इस अधिनियम के तहत पृथक् निर्वाचन के आधार पर मुस्लिमों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया गया, जिसके अंतर्गत मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकते थे। इस प्रकार इस अधिनियम के माध्यम से सांप्रदायिकता को वैधानिकता प्रदान की गई। वायसराय लार्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचन का जनक कहा जाता है।
  • भारत शासन अधिनियम, 1919: भारत के संवैधानिक विकास में भारत शासन अधिनियम, 1919 का महत्वपूर्ण स्थान है। इस अधिनियम को मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार भी कहते हैं। इस अधिनियम के निर्माता भारत सचिव मॉण्टेग्यू और भारत के वायसराय चेम्सफोर्ड थे। यह अधिनियम अनेक तात्कालिक कारणों, जैसे-प्रथम विश्व युद्ध का ब्रिटेन पर बढ़ता प्रभाव, कांग्रेस की सक्रियता एवं संवैधानिक सुधारों की मांग, होमरूल आंदोलन का प्रभाव आदि कारणों से यह अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम की मुख्य विशेषता प्रांतों में द्वैध शासन को लागू करना था, इसके तहत केंद्रीय और प्रांतीय विषयों को पृथक् किया गया और द्वैध शासन प्रणाली के तहत प्रांतीय विषयों को दो भागों में विभाजित किया गयाः

         (i) आरक्षित विषयः राजस्व, न्याय, वित्त, पुलिस आदि।

         (ii)  हस्तांतरित विषयः स्थानीय स्वशासन, शिक्षा एवं कृषि स्वास्थ्य आदि।

         इस अधिनियम के द्वारा केंद्र में द्विसदनात्मक विधायिका स्थापित की गई। केंद्रीय विधान परिषद का स्थान राज्य परिषद (उच्च सदन) एवं विधानसभा (निम्न सदन) वाले द्विसदनात्मक विधानमंडल ने ले लिया।

 

सदन
सदस्य
निर्वाचित
मनोनीत
कार्यकाल

राज्य परिषद (उच्च सदन)

60
34
26
5 वर्ष

केन्द्रीय विधान सभा (निम्न सदन)

144
104
40
3 वर्ष

    

इस अधिनियम की समीक्षा के लिए एक वैधानिक आयोग के गठन का प्रावधान किया गया, जिसका मुख्य कार्य अधिनियम की जांच करके 10 वर्ष के पश्चात् अपने रिपोर्ट प्रस्तुत करना था। इसके अंतर्गत ही ब्रिटेन में 1927 में साइमन आयोग का गठन किया गया तथा 1928 में वह भारत आया। इस आयोग का अध्यक्ष सर जॉन साइमन को नियुक्त किया गया था।

  • भारत शासन अधिनियम, 1935: राजनीतिक दृष्टिकोण से भारत शासन अधिनियम, 1935 भारतीय संविधान के विकास में विशिष्ट स्थान रखता है। यह अधिनियम साइमन आयोग की रिपोर्ट, नेहरू समिति की रिपोर्ट, तीनों गोलमेज सम्मेलनों के प्रतिवेदन एवं ब्रिटिश सरकार के श्वेत-पत्र पर आधारित था। इसके अंतर्गत निम्नलिखित प्रावधान किए गएः
  1. अखिल भारतीय संघ की स्थापनाः यह संघ 11 ब्रिटिश प्रांतों, 6 चीफ कमिश्नर के क्षेत्रों और उन देशी रियासतों से मिलकर बनना था जो स्वेच्छा से संघ में शामिल होना चाहते थे। प्रांतों के लिए संघ में शामिल होना अनिवार्य था लेकिन देसी रियासतों के लिए ऐच्छिक था, जिसके कारण देशी रियासतें संघ में सम्मिलित नहीं हुईं और प्रस्तावित संघ की व्यवस्था कभी भी अस्तित्व में नहीं आ सकी।
  2. प्रांतों में द्वैध शासन की समाप्ति और प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना तथा केंद्र में द्वैध शासन लागू किया जाना और संघीय विषयों को हस्तांतरित और आरक्षित विषयों के रूप में विभाजित किया गया।
  3. संघीय न्यायालय की स्थापना और इसी के तहत 1937 ईसवी में संघीय न्यायालय की स्थापना हुई। इस न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और दो अन्य न्यायाधीश की व्यवस्था की गई। न्यायालय से संबंध में अंतिम शक्ति प्रिवी कांउसिल (लंदन) को प्राप्त थी।
  4. ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता का प्रावधान किया गया अर्थात इस अधिनियम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का अंतिम अधिकार ब्रिटिश संसद के पास था। प्रांतीय विधानमंडल और संघीय व्यवस्थापिका दोनों में से कोई भी किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकते थे।
  5. इस अधिनियम के तहत ब्रिटेन में भारत परिषद को समाप्त कर दिया गया।
  6. सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति का विस्तार किया गया।
  7. इसी अधिनियम के तहत रिजर्व बैंक की स्थापना की गई।
  • 1937 का प्रान्तीय चुनावः भारत शासन अधिनियम, 1935 के अधीन वर्ष 1937 में 11 प्रान्तों में प्रान्तीय विधानमण्डल चुनाव सम्पन्न हुए, जिसमें 1585 सीटों में 711 सीटों पर कांग्रेस को विजय प्राप्त हुई। वर्ष 1937 के चुनाव में कांग्रेस ने 6 प्रान्तों में सरकार बनाई थी तथा इसका चुनाव-चिन्ह पीला बक्सा था।
  • भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947: 20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने घोषणा की कि 30 जून, 1947 को भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाएगा। इसके बाद सत्ता उत्तरदायी भारतीय सरकार के हाथ में सौंप दी जाएगी। इसके उपरांत ब्रिटिश सरकार ने स्पष्ट किया कि 1946 में संविधान सभा का गठन किया जाएगा जो भारतीय संविधान का निर्माण करेगी। इसके उपरांत लॉर्ड माउंटबेटन वायसराय बनकर कर भारत आए और उन्हें भारत की स्वतंत्रता एवं भारत के विभाजन से संबंधित कार्य सौंपा गया। इसी के . अंतर्गत माउंटबेटन योजना के अनुसार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1974 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत किया गया, जिसे 18 जुलाई, 1947 को स्वीकृति प्रदान की गई। इस अधिनियम के तहत निम्नलिखित प्रावधान किए गएः
  1. इस अधिनियम के तहत भारत में ब्रिटिश राज समाप्त कर 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा, जबकि 14 अगस्त, 1947 को भारत का विभाजन कर पाकिस्तान का निर्माण किया गया।
  2. इस अधिनियम के तहत वायसराय के पद को समाप्त करके गवर्नर जरनल बना दिया गया।
  3. प्रत्येक अधिराज्य में एक गवर्नर जनरल होगा, जिसकी नियुक्ति इंग्लैंड का सम्राट करेगा।
  4. दोनों राज्यों के लिए संविधान निर्माण सभा बनाने का अधिकार प्रदान किया गया, जो अपने राज्य के लिए संविधान निर्माण कर सकते थे। इसके तहत दोनों देशों के लिए अलग-अलग संविधान सभा का गठन किया गया और वर्तमान संविधान सभा ही नए संविधान बनाने और लागू होने तक विधानमंडल के रूप में 1935 के अधिनियम के अनुसार कार्य करेगी यह प्रावधान किया गया।
  5. सर रेडक्लिफ की अध्यक्षता में दोनों अधि-राज्यों की सीमा का निर्धारण करने के लिए दो सीमा आयोग-पंजाब सीमा आयोग और बंगाल सीमा आयोग गठित किए गए।
  6. जब तक संविधान सभा संविधान का निर्माण नहीं कर लेती है तब तक संविधान सभा विधानमंडल के रूप में भी कार्य करेगी। साथ ही विधानमंडल के रूप में कार्य करते समय इनकी शक्तियों पर ब्रिटिश संसद का किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं रहेगा।

 


You need to login to perform this action.
You will be redirected in 3 sec spinner