राष्ट्रवाद का उदय

राष्ट्रवाद का उदय

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राष्ट्रवाद का उदय

 

विश्लेषणात्मक अवधारणा

इस अध्याय के अध्ययन का उद्देश्य है कि – विद्यार्थी राज्य - राष्ट्र और राष्ट्रवाद के मध्य एक क्रमबद्धता और इनमें निहित अंतर को समझ सके। 17वीं सदी में राष्ट्र शब्द का अभिप्राय राज्य की जनसंख्या से हुआ करता था, चाहे उसमें जातीय एकता हो या ना हों। विश्व के पटल में 1772 र्इ. के पोलैंड विभाजन के बाद राष्ट्र शब्द काफी प्रचलित हुआ। इसका अर्थ देशभक्ति से लिया जाने लगा। 18वीं सदी के अंत में एक राजनैतिक शक्ति के रूप में इसका उदय हुआ और 19वीं सदी के प्रारम्भ में राष्ट्र के अर्थ राजनैतिक स्वतंत्रता अथवा प्रभुसत्ता से लगाया गया चाहे वह प्राप्त कर ली हो या वांछित हो। वस्तुत: इस खंड से ही विद्यार्थियों में एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण, स्वतंत्रता आदोंलन हेतु एकजुटता के भावि अंकुरित होते हैं।

 

राष्ट्रवाद का अभिप्राय

राष्ट्रवाद का सीमित अर्थ एक ऐसी एकता की भावना या सामान्य चेतना से है जो राजनैतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, भाषायी, जातीय, सांस्कृतिक मनोवैज्ञानिक तत्वों पर आधारित रहती है। राष्ट्रवाद उस ऐतिहासिक प्रतिक्रिया का प्रतिपादन करता हैं, जिसके द्वारा राष्ट्रीयता, राजनैतिक एकता का रूप धारण कर लेती हैं। यह वह भावना हैं जिससे प्रेरित होकर वे लोग एक निश्चित और सशक्त राष्ट्रीयता का निर्माण करते हैं और संसार में अपने लिए विशिष्ट पहचान बनाना चाहते हैं।

 

राष्ट्रवाद के रूप

·         जातीयता पर आधारित

·         राज्य और संविधान के प्रति निष्ठा

·         विदेशियों के प्रभुत्व से आजादी

·         स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्रवाद

 

राष्ट्रवाद के निर्माण में सहायक तत्व

·         जातीय एकता

·         भाषा की एकता  

·         धर्म की एकता

·         भौगोलिक एकता

·         विचारों और आदर्शो की एकता या सामाजिक संस्कृति

·         कठोर विदेशी शासन के प्रति सामान्य अधीनता

 

भारत में राष्ट्रीयता की उत्पत्ति के कारण

भारत में राष्ट्रवाद के उदय एवं विकास के लिये निम्न कारक उत्तरदायी थे

·         विदेशी आधिपत्य का परिणाम।

·         पाश्चात्य चिंतन तथा शिक्षा।

·         फ्रांसीसी क्रांति के फलस्वरूप विश्व स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना एवं आत्म-विश्वास की भावना का प्रसार।

·         प्रेस एवं समाचार-पत्रों की भूमिका।

·         भारतीय पुनर्जागरण।

·         अंग्रेजों द्वारा भारत में आधुनिकता को बढ़ावा।

·         ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध भारतीय आक्रोश इत्यादि।

 

प्रेस एवं समाचार-पत्रों की भूमिका

समय-समय पर उपनिवेशी शासकों द्वारा भारतीय प्रेस पर विभिन्न प्रतिबंधों के बावजूद 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारतीय समाचार पत्रों एवं साहित्य की आश्चर्यजनक प्रगति हुयी। 1877 र्इ. में प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषायी एवं हिंदी समाचार पत्रों की संख्या लगभग 169 थी तथा इनकी प्रसार संख्या लगभग 1 लाख तक पहुंच गयी थी।

 

 

भारत के अतीत का पुन: अध्ययन

19वीं सदी के प्रारंभ में भारतवासियों को अपने प्राचीन इतिहास का ज्ञान अत्यंत कम था। वे केवल मध्यकालीन या 18वीं सदी के इतिहास से ही थोड़ा-बहुत परिचित थे। किंतु तत्कालीन प्रसिद्ध यूरोपीय इतिहासकारों जैसे- मैक्समूलर, मोनियर विलियम्स, रोथ एवं सैसून तथा विभिन्न राष्ट्रवादी इतिहासकारों जैसे- आर. जी. भंडारकर, आर. एल. मित्रा एवं स्वामी विवेकानंद इत्यादि ने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को पुर्नव्याख्यित कर राष्ट्र की एक नयी तस्वीर पेश की।

 

सुधार आंदोलनों का विकासात्मक स्वरूप

19वीं सदी में भारत में विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलन प्रारंभ हुये। इन आंदोलनों ने सामाजिक, धार्मिक नवजागरण का कार्यक्रम अपनाया और सारे देश को प्रभावित किया। आदोलनकारियों ने व्यक्ति स्वातंत्र्य, सामाजिक एकता और राष्ट्रवाद के सिद्धांतों पर जोर दिया और उनके लिये संघर्ष किया। इन आंदोलनों ने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सामाजिक एकता कायम की।

 

विदेशी शासकों का जातीय अहंकार तथा प्रतिक्रियावादी नीतियां-

§  लार्ड लिटन की विभिन्न प्रतिक्रियावादी नीतियों जैसे- इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश की न्यूनतम आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करना (1876 र्इ.), जब पूरा दक्षिण भारत भयंकर अकाल की चपेट में था तब भव्य दिल्ली दरबार का आयोजन (1877 र्इ.), वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट (1878 र्इ.) तथा शस्त्र अधिनियम (1878 र्इ.) इत्यादि ने देशवासियों के समक्ष सरकार की वास्तविक मंशा उजागर कर दी तथा अंग्रेजों के विरुद्ध जनमत तैयार किया।

§  इलबर्ट बिल विवाद (1883 र्इ.) सामने आया। लार्ड रिपन के समय इलबर्ट बिल को लेकर भारत में एक विशिष्ट समस्या खड़ी हो गयी। लार्ड रिपन ने इस प्रस्ताव द्वारा भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपियन अधिकारियों के मुकद्दमे का निर्णय करने का अधिकार देना चाहा।

 

साहित्य की भूमिका

§  19वीं एवं 20वीं सदी में विभिन्न प्रकार के साहित्य की रचना हुयी, उससे भी राष्ट्रीय जागरण में सहायता मिली। विभिन्न कविताओं, निबंधों, कथाओं, उपन्यासों एवं गीतों ने लोगों में देशभक्ति तथा राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत की।

§  हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बांग्ला में रवींद्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, बंकिमचंद्र चटर्जी, मराठी में विष्णु शास्त्री चिपलंकर, असमिया में लक्ष्मीदास बेजबरुआ इत्यादि उस काल के प्रख्यात राष्ट्रवादी साहित्यकार थे। इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा भारतीयों में स्वतंत्रता, समानता, एकता, भार्इचारा तथा राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया। साहित्यकारों के इन प्रयासों से आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास को प्रोत्साहन मिला।

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