मानव स्वास्थ्य, रोग एवं उपचार

मानव स्वास्थ्य, रोग एवं उपचार

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मानव स्वास्थ्य, रोग एवं उपचार

 

विश्लेषणात्मक अवधारणा

एक लंबे समय तक स्वास्थ्य को शरीर और मन की ऐसी स्थिती माना गया, जिसमें शरीर के कुछ द्रवों का संतुलन बना रहता है। अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए संतुलित आहार, व्यक्तिगत स्वच्छता और नियमित व्यायाम, योग बहुत महत्त्वपूर्ण है। रोग और शरीर के विभिन्न प्रकायोर्ं पर उनके प्रभाव के बारे में जागरूकता, संक्रामक रोगों के प्रति टीकाकरण, अपशिष्टों का समुचित निपटान, रोगवाहकों का नियंत्रण एवं खाने और पानी के संसाधनों की स्वच्छता अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। वर्तमान में मानव के अग्रिम कल्याण के लिए विशेषकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में जीवविज्ञान के ज्ञान की उपयोगिता को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। ऐंटिबायोटिक तथा संश्लेषित पादप व्युत्पन्न औषधियों और निश्चेतक आदि की खोज ने एक ओर तो चिकित्सा व्यवस्था तथा दूसरी ओर मानव स्वास्थ्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन किए हैं।

 

हम सभी स्वास्थ्य शब्द का प्रयोग निरंतर करते हैं स्वास्थ्य का अर्थ मात्र ‘रोग की अनुपस्थिति’ अथवा ‘शारीरिक स्वास्थ्यता’ नहीं है। इसे पूर्णरूपेण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। स्वास्थ्य से लोगों की कार्यक्षमता, उम्र में वृद्धि होती है और शिशु तथा मातृ मृत्युदर में कमी होती है। मन और मानसिक अवस्था स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। नि:संदेह, स्वास्थ्य निम्नलिखित बातों से प्रभावित होता है

i.      आनुवंशिक विकार (Genetic Disorder)- वे अपूर्णताएं जिनके साथ बच्चे का जन्म होता है और ये अपूर्णताएं जो बच्चे को गर्भ से लेकर जन्म के समय ही मां-बाप से वंशागत रूप से मिलती हैं।

ii.     विभिन्न प्रकार के संक्रमण (infections) - जिसके द्वारा हानिकारक सूक्ष्मजीव शरीर में प्रवेश करते हैं बीमारियों का कारण बनते हैं।

iii.    मनुष्य की जीवन शैली जिसमें, जो भोजन, जो जल ग्रहण करते हैं इसके साथ में मानसिक और शरीर को विश्राम देना इसके अतिरिक्त व्यायाम या परिश्रम का संतुलन हमें स्वस्थ्य रखता हैं, इनके असन्तुलित होने से जब शरीर के एक या अधिक अंगों या तंत्रों के प्रकायोर्ं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और विभिन्न लक्षण प्रकट होते हैं तो इस अवस्था को अस्वस्थता कहते है, अर्थात् कोर्इ रोग हो गया है।

विभिन्न जीव जिसमें जीवाणु, विषाणु, कवक (फंजार्इ), प्रोटोजोअन, कृमि (हेल्मिंथस) शामिल हैं, जो सजीवों में रोग उत्पन्न करते हैं। ऐसे रोगकारक जीवों को रोगजनक (Pathogen) कहते हैं। इसलिए अधिकांश परजीवी (Parasites) रोगजनक हैं, क्योंकि ये परपोषी (host) के भीतर या उसके ऊपर रहकर उसे क्षति या हानि पहुंचाते हैं। रोगजनक हमारे शरीर में कर्इ तरह से प्रवेश कर सकते हैं एवं अपनी संख्या में वृद्धि कर हमारी सामान्य अत्यावश्यक क्रियाओं में बाधा पहुंचाते हैं। जिससे मार्कोलॉजिकल और प्रकार्यात्मक क्षति होती है। रोगजनकों के लिए आवश्यक है कि वे परपोषी के भीतरी वातावरण के अनुसार अपने को अनुकूलित कर लें। रोगों के उपचार के लिए औषधियों का प्रयोग सर्वप्रथम भारतीय ऋषि-मुनियों एवं औषधि विज्ञान के पिता हिपोक्रेट्स ने किया था।

बीमारी का कीटाणु सिद्धान्त (Germ theory of Disease)-  बीमारी का कीटाणु सिद्धांत (Germ Theory of Disease)बिमारियों का कारण अनेक सूक्ष्म जीवों तथा हानिकारक पदाथोर्ं से उत्पन्न होते हैं। इसकी पुष्टि रॉबर्ट कोच ने पशुओं में होने वाला एंथेक्स रोग सूक्ष्मजीवी जीवाणुओं से होने की खोज से की। रॉबर्ट कोच के सिद्धांत को बीमारी का कीटाणु सिद्धांत कहते है।

 

रोगों को वृहद स्तर पर दो वगोर्ं में बांटा गया है

 

1. जन्मजात रोग (Congenital disease)- आनुवंशिक रूप से यानी जन्म से ही पायी जाने वाली रचनात्मक या क्रियात्मक असमान्यता को जन्मजात रोग कहते हैं। उदाहरण- आनुवंशिक रोग एवं विभिन्न सिन्ड्रोम।       

 

 

2. उपार्जित रोग (Acquired disease)- वातावरण के कारक यानी रोगाणुओं (pathogens) के कारण होने वाले रोग को उपार्जित रोग कहते हैं क्योंकि यह रोग जन्म से नहीं होते है। उपार्जित रोग दो प्रकार के होते हैं-

(i) संक्रामक रोग (Infectious or Communicable Disease)- ऐसे रोग जीवों द्वारा रोगी व्यक्तियों के एक-दूसरे के संपर्क में आने पर फैलते हैं। हानिकारक जीवों द्वारा फैलने वाले रोग-

विषाणु (Virus) द्वारा- कोविड-19, इबोला, मर्स, सार्स, निपाह रोग, स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, एड्स, जापानी इंसेफलाइटिस, रेबीज या हाइड्रोफोबिया, पोलियो, हेपेटाइटिस, चेचक/बड़ी माता (small pox), छोटी माता (chicken pox), खसरा, चिकनगुनिया, डेंगू, रूबेला, गलसुआ (mumps) आदि।

जीवाणु (Bacteria) द्वारा- क्षय रोग (T.B.), काली खांसी, निमोनिया, डिप्थीरिया, प्लेग, गोनोरिया, सिफलिस, टायफॉइड, टिटनेस, हैजा (cholera), कुष्ट रोग, बाटयूलिज्म आदि।

कृमि (Worm) द्वारा- फाइलेरिया, एस्करियेसिस टीनिएसिस।

कवक द्वारा- दाद, दमा, गंजापन।

प्रोटोजोआ द्वारा- निद्रा रोग, कालाजार (ब्लैक फीवर), मलेरिया, पेचिस, पायरिया आदि।

(ii) असंक्रामक या असंचरणीय रोग (Non Communicable Disease)- ये रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के संपर्क से नही फैलते है। कोर्इ भी रोग बीमार व्यक्ति तक ही सीमित रहता है। असंक्रामक रोग को अलग-अलग प्रकारों में बांटते हैं

अल्पता/हिंताजन्य (Deficiency Related) रोग- ये रोग आहार में किसी पोषक तत्व की कमी के कारण होते हैं। जैसे- कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, विटामिन्स तथा खनिज तत्व। जैसेक्वाशिओरकोर, मरासम्स।

एलर्जी- ये बाहरी कारक जैसे- धूल, परागकण, रेशम नाइलोन कण, रासायनिक पदार्थ वायु में उपस्थित वायुशील पदाथोर्ं के प्रति शरीर के अतिसंवेदनशील हो जाते हैं इसे एलर्जी कहते हैं।

क्षयकारी/अपº्रासित रोग (Degenerated Diseases)- ये रोग फेफड़ों, हृदय या केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र के संतुलित तरीके से कार्य करने के कारण होते हैं। जैसे- कोरोनरी हृदय, हृदय शूल तथा एथिरोिस्क्लरोसिस आदि।

कैंसर- यह शरीर के किसी भी भाग में अविभेदित कोशिकाओं के टयूमर के रूप में होता है।

प्रतिरक्षा (immunity) - बड़ी संख्या में संक्रामक कारकों का सामना करना पड़ता है। परंतु, इनमें से कुछ ही रोग के शिकार बनाते हैं क्योंकि हमारा शरीर अधिकांश बाह्य कारकों से अपनी रक्षा कर लेता है। परपोषी (host) की रोगकारक जीवों से लड़ने की क्षमता जो उसे प्रतिरक्षी-तंत्र (immune system) के कारण मिली है, प्रतिरक्षा कहलाती है।

प्रतिरक्षा दो प्रकार की होती है

i.  सहज प्रतिरक्षा (innate immunity)

ii. उपार्जित प्रतिरक्षा (Acquired immunity)

 

 

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